
This is a platform created for Society for SCIENCE (an acronym for Socially Conscious Intellectuals' ENlightenment and CEphalisation). The objective of the Society is to provide interested intellectuals opportunity to develop skill for theoretical thinking and scientific temper through articles providing insight into philosophical aspects of Marxism and its relevance to practice.
Sunday, 31 August 2025
AI 171 हादसे पर एक मार्क्सवादी नज़रिया
AI 171 हादसे पर एक मार्क्सवादी नज़रिया
चीज़ों को समझने के लिए उनकी अंतर्वस्तु तथा अधिरचना के द्वंद्वात्मक संबंध को देखना, और परिवर्तनों को समझने के लिए चीजों तथा परिवेश के अंतर्द्वंद्वों को समझना ही मार्क्सवादी नज़रिया है। हर चीज, जो मानव के व्यवहार को प्रेरित करती है, को पहले मस्तिष्क से गुज़रना होता है, और मस्तिष्क से गुजरने पर वह क्या रूप लेगी यह परिस्थिति पर निर्भर करता है, यही अस्तित्व तथा चेतना का द्वंद्वात्मक संबंध है।
समाज व्यक्तियों से नहीं बना होता है बल्कि उन अंतर्संबंधों का समुच्चय होता है जिनके बीच व्यक्ति स्वयं खड़ा होता है। संख्या बल कम होने पर सामूहिक चेतना व्यक्तिगत चेतना के आधीन होती है पर संख्या बल बढ़ने पर इस संबंध में गुणात्मक परिवर्तन हो जाता है और व्यक्तिगत चेतना सामूहिक चेतना के आधीन हो जाती है। जहाँ बुर्जुआ चेतना (पूंजीवाद) में वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन और वितरण का उद्देश्य ज्यादा से ज्यादा अतिरिक्त मूल्य अर्थात मुनाफा बटोरना होता है, वहीं सर्वहारा चेतना (समाजवाद) में वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन और वितरण का उद्देश्य लोगों के जीवन स्तर को सुधारना होता है।
AI 171 के हादसे के कारणों को दो हिस्सों में बाँटा जा सकता है, प्रत्यक्ष - हवाई जहाज़ के उड़ान भरने से लेकर टकराने तक के बीच की परिस्थितियाँ और प्रक्रियाएँ, और अप्रत्यक्ष - भौतिक और वैचारिक परिवेश जिसने प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष परिस्थितियों तथा प्रक्रियाओं को आधार प्रदान किया।
AI 171 के हादसे में मुख्य भूमिका निभाने वाले अत्याधिक क्लिष्ट अवयवों को, दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है। निर्जीव - बोइंग कंपनी का ड्रीमलाइनर हवाई जहाज़, तथा, सजीव - पायलट, सहपायलट तथा अन्य कर्मचारी।
हादसे की, अलग अलग विशेषज्ञ अपनी अपनी मानसिकता तथा विशिष्टता के अनुरूप, अपनी अपनी व्याख्याएँ मीडिया पर साझा कर रहे हैं, जो हादसे की परिस्थिति के तथा कारणों के बारे में, आम आदमी को शिक्षित से ज्यादा भ्रमित कर रही हैं। बुर्जुआ चिंतन चीज़ों को टुकड़ों में बांट कर उनकी व्याख्या करता है, जब कि मार्क्सवादी चिंतन, टुकड़ों और समग्र के बीच के द्वंद्वात्मक संबंध के आधार पर चीज़ों की व्याख्या करता है और भ्रमों और पूर्वाग्रहों से निजात दिलाता है क्योंकि वह अंतर्विरोधों की व्याख्या उनके मूल से करता है।
आधुनिक पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था में उपभोग योग्य वस्तुएँ अनेकों पुर्जों को जोड़ कर हजारों की संख्या में एक साथ बनाई जाती हैं। हर चीज की मूल डिज़ाइन साधारण परिस्थितियों में उसकी उपयोगिता के आधार पर की जाती है और इसी सीमा के अंदर उसका उपयोग किया जाना निर्देशित होता है। फिर अभूतपूर्व परिस्थितियों की आशंका के आधार पर फ़ैक्टर ऑफ सेफ़्टी का गुणा कर उसकी अंतिम डिज़ाइन तय की जाती है जिसके आधार पर उसका उत्पादन किया जाता है। उत्पादन की जाने वाली एक ही श्रेणी की सभी चीज़ें एक सी हों और वे एक दूसरे के स्थान पर उपयोग की जा सकें यह इंटरचेंजिबिलिटी सुनिश्चित करने के लिए सभी मापों में टॉलरेंस तय की जाती है। सुरक्षा की दृष्टि से फ़ैक्टर ऑफ सेफ़्टी अधिक होना उचित होता है पर इसके बढ़ने के साथ उत्पादन लागत भी बढ़ जाती है। इसी प्रकार कार्य-निष्पादन तथा सुरक्षा की दृष्टि से टालरेंस कम होना उचित होता है पर इसके साथ ही उत्पादन लागत भी बढ़ जाती है। उत्पाद को उपभोक्ता निर्देशित सीमा के कितने नीचे या ऊपर उपयोग करता है यह उपभोक्ता की, सुरक्षा के प्रति मानसिकता पर निर्भर करता है।
वायुयान की उड़ान के लिए आवश्यक बल (लिफ़्ट), हवाई जहाज़ के कुल वज़न, पंखों के क्षेत्रफल, जिनमें एक सीमा के अंदर बदलाव फ्लैप के जरिए किया जा सकता है, तथा हवाई जहाज़ की गति V2 से प्राप्त होता है। टेक ऑफ से पहले वायुयान को हवाईपट्टी पर दौड़कर एक निर्धारित कम-से-कम (minimum) गति V1 हासिल करनी होती है। इस गति के हासिल हो जाने के बाद पायलट उड़ान को रद्द नहीं कर सकता है क्योंकि इस गति पर वायुयान को रोकने के लिए हवाई पट्टी की बाकी लंबाई पर्याप्त नहीं होती है। पायलट इंजन को पूरी अनुमत ताक़त दे कर हवाई जहाज़ की गति लगातार आगे बढ़ाता रहता है। निर्धारित गति Vr हासिल हो जाने के बाद आगे के हिस्से (नोज़) को ऊपर की तरफ उठाया जाता है और पिछले हिस्से को नीचे की तरफ झुकाया जाता है। इसे रोटेशन कहते हैं जो पायलट लीवर के जरिए करता है। रोटेशन के बाद लगातार दौड़ते रह कर हवाई जहाज़ गति V2 प्राप्त करता है और फिर पायलट द्वारा लीवर के जरिए फ्लैप की स्थिति में निर्धारित बदलाव करने पर ज़मीन छोड़ कर हवा पर सवार हो जाता है।
हवाई पट्टी की लंबाई का निर्धारण दो चीजों के आधार पर किया जाता है। सभी प्रकार के हवाई जहाज़ों के द्वारा हर प्रकार की परिस्थितियों में V2 हासिल करने के लिए आवश्यक, तथा उतरते समय V2 गति को अधिकतम रिटार्डेशन, जिसे फ्लैप की दिशा में बदलाव कर हवाई अवरोध के द्वारा हासिल किया जाता, के साथ 0 तक लाने के लिए आवश्यक, हवाई पट्टी की लंबाई को फ़ैक्टर ऑफ सेफ़्टी से गुणा कर के। हवाई पट्टी के आगे काफी दूर तक ख़ाली मैदान छोड़ा जाना चाहिए ताकि V1 गति के बाद किसी तकनीकी ख़राबी के कारण अगर हवाई जहाज़ सुरक्षित उड़ान भरने में असफल हो जाता है तो जान माल के कम से कम नुकसान के साथ क्रैश लैंडिंग की जा सके।
AI 171 की उड़ान में दुर्घटनाग्रस्त बोइंग कंपनी के अत्याधुनिक हवाई जहाज़ 787 ड्रीमलाइनर में GEnx के दो टर्बोफैन इंजन लगे थे। इस इंजन के चार प्रमुख पार्ट होते हैं, फ़ैन, कंप्रेसर, इग्नीशन चेंबर तथा टर्बाइन। फ़ैन, कंप्रेसर तथा टर्बाइन अत्याधिक तेज़ गति पर चलने के लिए बनी रोटेटिंग मशीन होती हैं और इग्नीशन चेंबर स्थिर भाग होता है। फैन तेज़ गति से हवा को आगे से खींचता है जिसका कुछ भाग कम्प्रेसर में भेजता है और बाकी पीछे की ओर फेंकता है जो हवाईजहाज़ को गति देने में मदद करती है। कम्प्रेसर हवा का दबाव कई गुना बढ़ा कर इग्नीशन चेंबर में भेजता है। इग्नीशन चेंबर भट्टी की तरह होता है जिसमें एक ओर से कम्प्रेस्ड हवा आती है और एक ओर से ईंधन। ईंधन के जलने से अत्याधिक ऊर्जा पैदा होती है जो निकास गैस का तापमान और गतिक उर्जा बढ़ाने में मदद करती है। निकास गैस टर्बाइन से गुज़रते हुए तेज़ गति से जेट के रूप में बाहर निकलती है। टर्बाइन, फ़ैन तथा कम्प्रेसर के अलावा हाइड्रॉलिक उपकरणों तथा जनरेटर को चला कर हवाई जहाज़ के सभी उपकरणों के लिए आवश्यक उर्जा प्रदान करती है। फ़ैन की हवा टर्बाइन के जेट से मिल कर हवाई जहाज़ के उड़ने तथा आगे बढ़ने के लिए आवश्यक थ्रस्ट प्रदान करती है। रोटेटिंग मशीनों की क्षमता निर्धारित गति सीमाओं के बीच ही उचित होती है, सीमा से कम या अधिक होने पर उनकी क्षमता बहुत तेज़ी से घटती है। रोटेटिंग मशीनों की क्षमता वातावरण के तापमान पर भी निर्भर करती है और वातावरण का तापमान बढ़ने के साथ इंजन की थ्रस्ट क्षमता भी तेज़ी के साथ घटती है। इस कारण वातावरण का तापमान एक सीमा से ऊपर होने पर फ़्लाइट को डिले या रद्द करने का नियम है।
इंजन के चारों भागों के बीच द्वंद्वात्मक संबंध और सामंजस्य ही हवाई जहाज़ के सुचारू रूप से उड़ने का मूल है जिसके लिए आवश्यक ऊर्जा ईंधन के निरंतर जलने से आती है। निरंतर जलने के लिए हवा तथा ईंधन की मात्रा का अनुपात सीमाओं के बीच होना आवश्यक है। इसके कम या ज्यादा होने पर जलना बंद हो जाता है जिसे फ्लेम आउट कहते हैं। तीनों रोटेटिंग मशीनों की गति की भी न्यूनतम और अधिकतम सीमाएं होती हैं। इंजन को स्टार्ट करने के लिए बैटरी स्टार्टर की जरूरत होती है। आइडलिंग स्पीड हासिल कर लेने के बाद टर्बाइन द्वारा पैदा होने वाली उर्जा इंजन को गति में रखने के लिए काफी होती है उसे बाहरी उर्जा की जरूरत नहीं रह जाती है और वह स्वायत्त हो जाता है। थ्रॉटल द्वारा ईंधन की आमद बढ़ा या घटा कर थ्रस्ट घटाया या बढ़ाया जाता है। अचानक ईंधन की सप्लाई बढ़ने या हवा की आमद कम हो जाने पर पर फ्लेम आउट होने और इंजन के पूरी तरह बंद हो जाने का डर रहता है।
पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था में मुनाफा प्राथमिकता होती है। मुनाफे की दर जोखिम के समानुपाती होती है, और सुरक्षा नियमों के साथ समझौता करना भौतिक-सामाजिक-चेतना का अभिन्न अंग बन जाता है। भौतिक-सामाजिक-चेतना, व्यक्तिगत अनभिज्ञ चेतनाओं का समुच्चय होती है। भीड़ नियंत्रण के नियमों के या यातायात के नियमों के उल्लंघन में यह मानसिकता आमजीवन में देखी जा सकती है। उत्पादों के डिज़ाइन में कम से कम फ़ैक्टर आफ सेफ़्टी तथा उत्पादन में अधिक टॉलरेंस इसी मानसिकता का हिस्सा हैं। ड्रीमलाइनर को बहुत ही आधुनिक, कम वज़नी, ईंधन की बचत वाले अपेक्षाकृत सस्ते जहाज़ के रूप में बाजार में उतारा गया था और इसके लिए सप्लायर्स पर भी कीमतों में कटौती करने के लिए दबाव बनाया गया था। पिछले दस सालों में ड्रीमलाइनर के बारे में आई शिकायतें इस बात को दर्शाती हैं कि लागत में कटौती के लिए फ़ैक्टर ऑफ सेफ़्टी तथा टालरेंस के मानकों के साथ समझौता किया गया है।
AI 171 की इस उड़ान के बारे में सर्वमान्य तथ्य है कि
- उड़ान से पहले हवाई जहाज़ के रख रखाव से संबंधित प्रक्रिया का पूरी तरह पालन किया गया था,
- इंजन स्टार्ट होने के बाद हवाईजहाज़ की सुरक्षा प्रणाली ने किसी त्रुटि का संकेत नहीं दिया था,
- V1 गति हासिल करने तक पायलट को इंजन की थ्रस्ट क्षमता में किस कमी का कोई संकेत नहीं मिला था,
- Vr गति हासिल करने पर भी पायलट को थ्रस्ट क्षमता में कमी का कोई संकेत नहीं मिला था,
- रोटेशन के बाद V2 हासिल करने के लिए पूरे रनवे का इस्तेमाल भी इस हवाई जहाज़ के लिए असामान्य नहीं था,
टेकआफ लीवर को उठाने के बाद सब कुछ अचानक असामान्य हो गया था, हवा में लगभग 650 फ़ीट उठने के बाद जहाज़ का उठना बंद हो गया था, लैंडिंग गियर बंद नहीं हुआ था, रेट टर्बाइन खुल गई थी, हवाईजहाज़ धीरे धीरे नीचे आने लगा था और लगभग 30 सेकेंड के अंदर हॉस्टल की छत से टकरा गया था। पायलट लगभग 5 सेकेंड का मे डे काल दे पाया था और उसका कंट्रोल टावर से संपर्क टूट गया था। सुरक्षा कारणों से मे डे कॉल का आधिकारिक विवरण सार्वजनिक नहीं किया गया है पर मीडिया में प्रचलित है - “ मे डे मे डे, नो पावर, नो थ्रस्ट, गोइंग डाउन”।
AI 171 लंबी दूरी की उड़ान थी और पूरी तरह भरी हुई थी। जाहिर है हवाई जहाज़ का कुल वज़न निर्दिष्ट अधिकतम सीमा के आस पास रहा होगा। V2 हासिल करने के लिए पूरी हवाई पट्टी का इस्तेमाल इस बात की पुष्टि करता है।
टेक ऑफ तथा लैंडिंग के लिए पायलट अधिकतम निर्दिष्ट थ्रॉटल के साथ टर्बाइन को अधिकतम गति पर चलाता है जो टर्बाइन की डिज़ाइन पर निर्भर करती है। अहमदाबाद में उस समय, दर्शाया गया, तापमान 40 डिग्री सेल्सियस के आस पास था।
पायलट तथा कंट्रोल टावर का आंकलन रहा होगा कि हवाई जहाज़ के कुल वज़न, इंजन के डिज़ाइन पैरामीटर्स तथा मौसम को ध्यान में रखते हुए, इंजन के पास सफल उड़ान के लिए पर्याप्त थ्रस्ट पैदा करने की क्षमता है और इस कारण उड़ान के लिए अनुमति दे दी गई होगी।
द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का सिद्धांत जन-चेतना में इतनी अच्छी तरह घर कर चुका है कि उसका विरोध यदा-कदा ही होता हो। पर उससे सहमत होना एक बात है लेकिन उसको जीवन के हर आयाम में लागू करना बिल्कुल ही अलग बात है। कोई भी व्यक्ति जो जीवन के हर आयाम में द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धांत का उपयोग करता है (यही मार्क्सवादी होना है), आसानी से समझ सकता है कि अनेकों छोटी छोटी नगण्य गलतियां भी एकसाथ मिलकर (मात्रात्मक परिवर्तन) एक घातक ग़लती (गुणात्मक परिवर्तन) को जन्म दे सकती हैं। कंट्रोल टावर के तापमान तथा हवाई जहाज़ के आसपास के तापमान में फर्क होने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है। हवाई जहाज़ के रख-रखाव तथा उत्पादन में मानकों में अनुमत छूट के साथ अनेकों स्तर पर किये गये समझौतों की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता है। अगर इन संभावनाओं को नजरंदाज कर तथा कंट्रोल टावर में मापे गये तापमान को सही मान कर, इंजन के अधिकतम अनुमत थ्रस्ट के आधार पर, उड़ान की अनुमति दी गई थी, और अगर वायुयान के पास वास्तविक तापमान कुछ डिग्री भी अधिक रहा हो तो इंजन की क्षमता में बहुत अधिक गिरावट हो सकती है।
एक बार एक राज्य में राजकीय उत्सव के लिए दूध की जरूरत थी। राजा ने एक बहुत बड़ा बर्तन रखवा दिया और मुनादी करवा दी कि रात को हर नागरिक बर्तन में एक लोटा दूध डालेगा। हर नागरिक ने सोचा कि बाकी सब तो दूध डालेंगे ही, और अगर मैं दूध की जगह एक लोटा पानी डाल कर पैसे बचा लूँ तो किसी को क्या पता लगेगा। सुबह देखा गया तो पाया गया कि बर्तन में केवल पानी ही था।
मुनाफे के लिए, सुरक्षा मानकों के साथ समझौता करना पूँजीवादी चेतना का एक अभिन्न अंग है और हर व्यक्ति की अनभिज्ञ चेतना इसी पूँजीवादी चेतना के वशीभूत होती है। बोइंग का ड्रीमलाइनर, इसी चेतना के वशीभूत, पूरी सप्लाई चेन में हर स्तर पर कम से कम फ़ैक्टर ऑफ सेफ़्टी तथा अधिक से अधिक टॉलरेंस के साथ बनाया गया है, जो साधारण आम परिस्थितियों में अत्याधिक सफल है, पर विपरीत परिस्थिति में सुरक्षा के लिए ख़तरा पैदा कर देता है। ड्रीमलाइनर के अलग अलग हिस्सों के, अलग अलग समय पर, अलग अलग परिस्थितियों में विफल होने की शिकायतें आती रही हैं। जाँच में हर विफलता के लिए पृथक पृथक उपकरणों की ख़राबी को, या परिचालन नियमों की अवहेलना को, या फिर कर्मचारियों की ग़लती को ज़िम्मेदार मानकर सुरक्षा जाँच पूरी ली गई, पर संयुक्त रूप से वायुयान की तथा उसके उपकरणों की डिज़ाइन तथा निर्माण प्रक्रिया की गहन जाँच, कई बार की अनुशंसा के बावजूद, कभी नहीं की गई। कुछ साल पहले जापान में लैंडिंग के समय ड्रीमलाइनर के दोनों रौल्स रॉयल इंजन एक साथ बंद हो गये थे। उसमें जान माल की कोई हानि नहीं हुई थी इसलिए मामले ने तूल नहीं पकड़ा और उसकी ज़िम्मेवारी सॉफ़्टवेयर के मॉलफंक्शन को उत्तरदायी ठहरा कर मामले को बिना किसी अनुशंसा के बंद कर दिया गया। बोईंग ने ड्रीमलाइनर की साख बचाने के लिए मीडिया और रिपोर्टरों पर लाखों डॉलर खर्च किये हैं।
AI 171 की उड़ान दुर्घटना, जिसमें ड्रीमलाइनर के दोनों इंजनों ने टेकऑफ के बाद एकसाथ काम करना बंद कर दिया था, के कारणों के बारे में मेरा विश्लेषण है कि -
- उडा़न के समय विमान का कुल वज़न अधिकतम अनुमत सीमा से कम नहीं था,
- उड़ान के समय विमान के पास की हवा का तापमान अधिकतम अनुमत सीमा से कम नहीं था,
- उड़ान के पहले कंट्रोल टावर तथा पायलट को अंदेशा नहीं था कि परिस्थितियों के कारण इंजन निर्दिष्ट क्षमता से कम ताक़त पैदा कर रहा होगा, और फ़ैन तथा कम्प्रेसर हवा के आमद की निम्नतम सीमा पर काम कर रहे होंगे,
- वायुयान ने पूरे रनवे का इस्तेमाल किया था जो इस बात को दर्शाता है कि रोटेशन के बाद इंजन की क्षमता तथा पावर में कुछ ह्रास हुआ होगा, और अगर V2 निर्दिष्ट से कम भी रही होगी तो भी पायलट के पास टेकऑफ के अलावा कोई विकल्प नहीं था।
- ऊपर की सभी परिस्थितियों के तथा फैक्टर ऑफ सेफ़्टी के अनुरूप टेकऑफ से पहले फ़ैन, कम्प्रेसर तथा टर्बाइन की गति नाज़ुक सीमा रेखा पर रहे होंगे जिसका ठीक ठीक अनुमान कर पाना किसी भी पायलट के लिए असंभव है और उस क्षण टेकऑफ रद्द करने का विकल्प भी नहीं होता है।
- टेक ऑफ की प्रक्रिया शुरू होते ही अचानक भार बढ़ने से टर्बाइन की गति और उसके साथ ही फ़ैन की गति कम होने से हवा की आमद भी अचानक कम हो गई होगी। हवा की आमद कम होने के कारण कम्प्रेसर में सर्ज की स्थिति भी पैदा हो गई होगी और इग्नीशन चेंबर को हवा न मिलने से ज्वाला समाप्त हो गई होगी। यह सब कुछ एक क्षण में, एक साथ दोनों इंजन में हुआ होगा क्योंकि दोनों के लिए परिस्थितियाँ एक सी थीं, और इसके साथ ही वायुयान को पावर मिलना बंद हो गया था जो पायलट के मे डे कॉल से स्पष्ट है। रेट टर्बाइन का खुलना भी यही दर्शाता है, पर वायुयान की रफ़्तार इतनी कम थी कि वह भी पावर पैदा नहीं कर सकती थी। लैंडिंग गियर का बंद न हो पाना भी दर्शाता है कि हवाई जहाज़ को बिल्कुल भी पावर उपलब्ध नहीं थी।
अगर उपर्युक्त विश्लेषण सही है और फ्लाईट डेटा रिकॉर्डर में भी यह बात निकल कर सामने आती है कि टेकऑफ के समय हवाई जहाज़, सुरक्षित टेक ऑफ के लिए निर्दिष्ट V2 हासिल नहीं कर पाया था, तो भी क्या सुरक्षा जाँच विशेषज्ञ इसके कारणों को रेखांकित कर पायेंगे ताकि भविष्य में ऐसी दुर्घटना को होने से रोका जा सके? शायद नहीं। 17 जनवरी 2019 को, ओसाका हवाई अड्डे पर उतरते समय एएनए के बोईंग 787 ड्रीमलाइनर के दोनों इंजन के बंद होने की दुर्घटना के कारणों को भी सुरक्षा जाँच विशेषज्ञ रेखांकित नहीं कर पाये थे।
पर दुर्घटना के कारणों को मूल से समझना जरूरी है ताकि भविष्य में ऐसी दुर्घटना को टाला जा सके। दुर्घटना का कारण पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की उस भौतिक-सामाजिक-चेतना में निहित है जो मुनाफा बढ़ाने के लिए सुरक्षा मानदंडों के साथ समझौता करने के लिए प्रेरित करती है। हवाई जहाज़ के उत्पादन में और परिचालन में, सुरक्षा मानदंडों को लागू करने में और दुर्घटना की जाँच करने में लगे सभी कर्मचारियों की अनभिज्ञ चेतना उसी भौतिक-सामाजिक-चेतना के नियंत्रण में होती है। कोई भी व्यक्ति जो इस व्यवस्था के सहयोग से अपने अस्तित्व तथा सुख सुविधा के साधन जुटाता है, उसकी अनभिज्ञ चेतना उसी भौतिक-सामाजिक-चेतना का अंश होती है और उसके नकारात्मक पहलू को देखने में असफल रहती है। अस्तित्व तथा चेतना का यही द्वंद्वात्मक संबंध है। इस दुर्घटना के कारणों को भी सुरक्षा जाँच विशेषज्ञ रेखांकित नहीं कर पायेंगे।
अगर इस विश्लेषण को सही माना जाये, तो हवाई जहाज़ के कुल भार तथा वातावरण के तापमान की अधिकतम सीमा को कुछ कम पर सीमित कर दोनों इंजनों के इस प्रकार एक साथ बंद होने की स्थिति से बचा जा सकता है।
(वामपंथी साथियों से आग्रह है कि इस विश्लेषण की कमियों पर अपनी तार्किक टिप्पणी अवश्य साझा करें ताकि मैं भी उन्हें समझ सकूँ)
सुरेश श्रीवास्तव
7 जुलाई, 2025
Saturday, 30 August 2025
AI 171 Accident - a tragedy that could, and should have been avoided
About the causes of tragedy of AI 171, plethora of videos and texts is available on social media, some attributing to deliberate or inadvertent action of pilots, some attributing to maintenance lapses on the part of the airlines and some attributing to quality control overlooks by Boeing manufacturer. One or two did address the tendency of profiteering, but none leading to clear understanding of the cause that triggered the event leading to the crash, and to a recommendation for efficient and cost effective steps to avoid recurrence of such tragedy in future. To demonstrate ad hominem one has to grasp the root of the matter.
In 2019 at Osaka airport while landing ANA flight the Dreamliner suffered dual engine failure. Unfortunately the experts could not identify exact cause of dual engine failure and attributed it to error by pilot in applying full thrust reversal too quickly before the aircraft transitioned to ground mode which caused malfunction of TCMA (thrust Control Malfunction Accommodation system. And the matter closed at that
Physicists, scientists and practicing specialist observe and analyse a phenomenon in isolation and tend to develop habit of missing the woods for the trees while ideological thinkers and philosophers tend to develop habit of missing the roots for the woods. But for holistic view innate skill of abstraction needs to be honed.
Capitalist mode of production develops social consciousness predisposed to take higher risks for maximisation of profits.
Society for SCIENCE (Socially Conscious Intellectuals ENlightenment and CEphalisation) is a platform, organising group discussions to hone skills in abstraction and publishing articles to spread scientific temper.
On crash of AI 171 the author is of the view that low safety margins in operation procedure is the cause of this accident, and published three articles on social media, one before the release of the preliminary report by AAIB and two after the release of the report. Society for SCIENCE organised group discussion and put a video on YouTube.
In this article and video, the author has summarised his analysis of the accident.
Dreamliner Boeing 787-8 is considered one of the most efficient aircrafts, fitted with two turbofan engines and equipped with FADEC (Full Authority Digital Engine Control). A turbofan engine consists of three rotating machines, fan, multistage axial flow compressor and multistage axial flow turbine, all integrated and working in tandem. Compressed air is fed to ignition chamber where burning fuel generates heat to raise temperature of compressed air, which when guided to expand through various stages of turbine, generates enough power to run the fan and the compressor, to provide required thrust to fly the aircraft and to provide electrical and mechanical energy needed for auxiliaries.
Characteristic curves of compressor and turbine are bell shaped, meaning they work very efficiently over a range of rotating speeds and air flow rates, and efficiency drops very sharply outside this range and then at some point outside this range compressor may stall and go into surge or choke, meaning they will stop performing the task they are supposed to perform.
Problem with compressor is more complicated and serious because the flow of air is with adverse pressure gradient, that is, from low pressure to high pressure, while in turbine the flow is from high pressure to low pressure.
Flow of air between compressor blades is like flow through a passage. For efficient functioning the flow must be laminar and not turbulent. In laminar flow the boundary layer (the layer next to the surface of blade) must follow blade contour and must not leave contact. If it leaves the contact, in the space between the boundary layer and blade surface air will become turbulent. Because of turbulence there will be energy loss and desired pressure will not be achieved. This is stalling. Stalling can be caused by sudden reduction in the speed of inlet air which will cause separation of boundary layer because of adverse pressure gradient. Sudden reduction in the speed of inlet air can be caused either by a back pressure event in the turbine downstream or reduction in the fan speed because of overloading of the turbine.
If, with timely action, the flow is not increased or angle of flow is not changed by changing stator blade angle, the stall from one blade will lead to stall in other blades which ultimately will cascade into reversal of flow, that is compressor will go into surge.
During stall, flow is uniform, but in surge the flow is in the form of rapid violent pulses with time periods of few milliseconds, sometimes violent enough to result in complete reverse flow with big bang. In complete reversal ignition chamber will not get any fresh air, flame will extinguish and the turbine will stop generating any power meaning by complete engine failure. Variable-pitch stators (to control flow angles), compressor bleeds and tip clearance controls are some measures used to reverse stall and to avoid going into surge.
The designer and manufacturer of the engine (GE herein) knows limiting values of the parameters; engine speed, mass flow rate, pressure ratio and ambient conditions which can lead to stall and recommends that the user must keep the operation well away from these limits.
The aircraft manufacturer Boeing, programmes the FADEC (Full-Authority Digital Engine Control), to keep the operating point of the compressor well away from the so-called stall or surge lines. Too much far away will increase operational cost, too less far away will enhance the operational risk and how much far away is matter of operational philosophy.
These aircrafts are equipped with two Enhanced Airborne Flight Recorders (EAFR). The EAFRs are fitted at two locations, one in the tail section and other in the forward section. The two EAFRs are similar in construction and record a combined data stream of digital flight data and cockpit voice information, with both stored on the same device. The aft EAFR receives electrical power from the aircraft’s main electrical system. The forward EAFR contains an additional power source from the Recorder Independent Power Supply (RIPS), a system that provides electrical power to the forward EAFR in the event of a power or bus loss on the aircraft. This allows the forward EAFR to continue to record available digital flight data, and voice data from the Cockpit Area Microphone (CAM), even after power is lost to other aircraft systems.
The aircraft is also fitted with RAT (Ram Air Turbine) for emergency power supply. In case of failure of both engines, RAT is deployed automatically and runs with the pressure of wind. RAT supplies necessary electric and hydraulic power to navigate the plane till engines are restarted.
This information about design, manufacturing and operation of Dreamliner aircrafts is fundamental and needs to be kept in mind while analysing the information, explicit and implicit, provided by the preliminary report.
The CPM (Crash Protected Memory) module retrieved from the EAFR was found to be in good condition. The data was downloaded and initial analysis of the recorded audio and flight data has been done. The preliminary report discloses limited information only and at this stage no actions have been recommended for B787-8 and/or GE GEnx-1B engine operators and manufacturers. To complete the picture, missing information between events is presumed logically and is subject to correction as and when detailed information is released to public.
Let us now sift through the information provided in the preliminary report.
Before requesting pushback and startup (07:43:00 UTC, 13:13:00 IST) the pilots must have fed to the onboard computer values of various parameters like total weight, runway length and ambient conditions to determine V1, Vr, V2 and flap and thrust settings. Pilots must have made final adjustments in input data before confirming requirement of full length of runway (07:49:12 UTC, 13:19:12 IST) and before seeking clearance for taxiing which was granted (07:55:15 UTC, 13:25:15 IST). It is important to know the final temperature and pressure which were fed to the computer to get the operating instructions. Aircraft was cleared for take off (08:07:33 UTC, 13:37:33 IST). The preliminary report shows temperature and atmospheric pressure as per Meteorological report - at 07:30 UTC (13:00 IST) 36oC and 1001 hPa respectively, and at 09:00 UTC (14:30 IST) 38oC and 0900 hPa respectively. A temperature increase of 2oC and pressure decrease of 2 hPa over one and half hours may not be significant under normal conditions of operation but may be critical if the engines were required to operate very close to stall and surge lines. Take-off Weight was 2,13,401 Kgs, 97.81% of max. allowed - 2,18,183 Kgs, safe margin of narrow 2.19%. Many long haul flights which require larger amount of fuel, meaning high takeoff weight, are reported to have delayed takeoff or to have been aborted at 40oC. Higher ambient temperature means higher V2 and longer runway requirement. In the present case the pilots had requested full runway requirement.
With available conditions at Take-Off, calculated speeds were V1 - 153 Kts, Vr - 155 Kts, V2 -162 Kts. As per the EAFR data, the aircraft achieved V1 153 kts at 08:08:33 UTC (13:38:33 IST), Vr 155 kts was achieved at 08:08:35 UTC (13:38:35 IST). The report says aircraft air/ground sensors transitioned to air mode at 08:08:39 UTC, which means V2 162 Kts was achieved at 08:08:39 UTC (13:38:39 IST).
The report shows that the aircraft achieved the maximum recorded airspeed of 180 Knots at about 08:08:42 UTC (13:38:42 IST). Thus increase of 2 Knots from V1 to Vr took 2 seconds, increase of 7 Knots from Vr to V2 took 4 seconds and increase of 18 Knots from V2 to maximum recorded took 3 seconds. This means both engines were getting continuously increasing fuel supply.
According to the report, immediately after achieving speed of 180 Knots the Engine 1 and Engine 2 fuel cutoff switches transitioned from RUN to CUTOFF position one after another with a time gap of 01 sec.
In the cockpit voice recording, one of the pilots is heard asking the other why did he cutoff. The other pilot responded that he did not do so. This indicates that cut off switches were transitioned by FADEC within 3 and 4 seconds of take off.
The RAT hydraulic pump began supplying hydraulic power at about 08:08:47 UTC, within 8 seconds of take off and 5 seconds of achieving maximum speed of 180 Kts. Thus it is logical to assume that both engines flamed out because of surge caused by sudden increase of load on take off. And also logical to conclude that fuel switches were transitioned by FADEC and not by mechanical switches operated by one of the pilots.
As per the EAFR, the Engine 1 fuel cutoff switch transitioned from CUTOFF to RUN at about 08:08:52 UTC. The APU Inlet Door began opening at about 08:08:54 UTC, consistent with the APU Auto Start logic. Thereafter at 08:08:56 UTC the Engine 2 fuel cutoff switch also transitions from CUTOFF to RUN. When fuel control switches are moved from CUTOFF to RUN while the aircraft is in flight, each engines full authority dual engine control (FADEC) automatically manages a relight and thrust recovery sequence of ignition and fuel introduction. The EGT was observed to be rising for both engines indicating relight.
Complete sequence of events after the aircraft achieved maximum speed, confirms that FADEC was in full control and was functioning correctly and all electrical and mechanical systems were functioning correctly. Any human error in operation and maintenance, and any malfunction of any system must be ruled out.
The EAFR recording stopped at 08:09:11 UTC (13:39:11 IST).
The statements of the witnesses and the surviving passenger have been obtained by the Investigators but have not been included in the preliminary report. As per media reports the lone surviving passenger has stated that he heard a loud bang and observed light in the cabin flicker before the crash. Both these events support the assumption of stall, surge and flame out.
In his Hindi article dated 7 July 2025 posted on Facebook SFS Group, author expressed his view that dual engine failure of AI 171 flight would have been triggered by compressors going into surge and not because of any electrical failure or deliberate action by one of the pilots. English translation of the final analysis in 7 July 2025 article is given below.
“As soon as the take-off process started, because of sudden increase of load, reduction of speed of turbines and with it speed of fans would have reduced due to which the air flow would have also suddenly reduced. Due to the reduced air flow, a surge situation would have also arisen in the compressor and the flame would have died due to lack of air in the ignition chamber. All this would have happened in both the engines simultaneously in a moment because the conditions were the same for both and with this the plane lost power, which is evident from the pilot's May Day call. The RAT turbine deployment also indicates this, but the speed of the plane was so low that it could not generate enough power. The landing gear not being able to close also shows that the plane had no power at all.”
Analysis herein of the preliminary report confirms the previous analysis.
AI 171 accident would not have occurred if enquiry in ANA NH 985 dual engine failure would have arrived at its logical conclusion.
It would have been better if AAIB would have recommended that Boeing and GE increased safety margin in their SOP of Dreamliners till the final report.
Suresh Srivastava
30 August, 2025
(Author is a member of Society for SCIENCE)
Tuesday, 12 August 2025
भारतीय उपनिवेश के, दो राष्ट्रों में रूपांतरण का, मार्क्सवादी विश्लेषण
भारतीय उपनिवेश के, दो राष्ट्रों में रूपांतरण का, मार्क्सवादी विश्लेषण
मार्क्सवाद, समाज को लोगों के समूह के रूप में न देख कर, उन संबंधों के समुच्चय के रूप में देखता है जिन संबंधों के साथ वे लोग रह रहे होते हैं, और समझाता है कि जीवन के भौतिक आधार पर हर वर्ग विचारों का एक तिलस्म खड़ा कर लेता है जो उसके भौतिक आधार से पूरी तरह असंबद्ध नजर आता है। और यह समझ चेतना तथा अस्तित्व के द्वंद्वात्मक संबंध की समझ पर ही आधारित है।
भौतिक-सामाजिक-चेतना के दो भाग होते हैं, एक जो उत्पादन संबंधों के आधार पर विकसित होती है, और दूसरी जो रूढ़ियों तथा परंपरा के रूप में विरासत में मिलती है। सामंतवाद से पूंजीवाद में संक्रमण के साथ, सामाजिक चेतना में, जहाँ श्रेष्ठता के पाखंड का स्थान स्वतंत्रता, समानता तथा बंधुत्व की भावना ले लेती है, वहीं संपत्ति के निजी स्वामित्व की अवधारणा में कोई परिवर्तन नहीं होता है। भारतीय उपनिवेश पर जितनी मज़बूत पकड़ अंग्रेज़ी साम्राज्य रखना चाहता था, उतनी ही मज़बूत पकड़ भारत का कुलीन वर्ग तथा बुर्जुआ वर्ग भारतीय राष्ट्र राज्य पर रखना चाहता था। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का विकास और उपनिवेश का दो राष्ट्रों में रूपांतरण इतिहास की मार्क्सवादी समझ (ऐतिहासिक भौतिकवाद) को सत्यापित करता है।
राष्ट्रीयता एक सामूहिक सामाजिक चेतना है जो लोगों के भौतिक जीवन के साधनों के उत्पादन के दौरान विकसित होती है। जहाँ बुर्जुआ चिंतन राष्ट्रीयता को राष्ट्र राज्य के रूप में गठित राजसत्ता के संदर्भ से परिभाषित करता है, वहीं मार्क्सवाद राष्ट्रीयता को जीवन पद्धति के संदर्भ से परिभाषित करता है। मानव इतिहास एक निरंतर प्रक्रिया है और उसके किसी कालखंड को उसके अतीत से असंबद्ध कर के देखने के प्रयास के नतीजे गलत ही होंगे। राष्ट्र राज्य की अवधारणा पौने दो शताब्दी पुरानी है पर भारतीय उपमहाद्वीप पर मानव सभ्यता का इतिहास पचास शताब्दी से भी ज्यादा पुराना है। अनेकों विविधताओं वाले, अनेकों समूहों की, अनेकों राष्ट्रीयताओं वाले उपमहाद्वीप के निवासियों को, केवल धर्म के नाम पर, दो राष्ट्रों के रूप में देखना संकीर्ण मानसिकता है।
1857 से पहले, सामंतवादी उत्पादन संबंधोंके अनुरूप, वंशवादी संपत्ति संबंधों पर आधारित राजशाही के आधीन भारतीय उपमहाद्वीप का निम्न-मध्य वर्ग (बुर्जुआ वर्ग), उत्पादक वर्ग की भाँति, अपने आप को केवल प्रजा के रूप में ही देखता था जिसकी राजसत्ता में कोई भूमिका नहीं थी।
19वीं सदी के मध्य में, पूरे यूरोप में, औद्योगिक क्रांति और पूंजीवादी व्यवस्था के विकास के अनुरूप, बुर्जुआ वर्ग, राष्ट्रराज्य और राष्ट्रवाद की भावना के आधार पर आम जनता को अपने पीछे लामबंद कर राजशाही के खिलाफ बुर्जुआ जनवाद के लिए संघर्ष कर रहा था। इंग्लैंड की पार्लियामेंट 1857 के विद्रोह को भारत में स्वतंत्रता आंदोलन की पूर्व संध्या के रूप में देख रही थी इसलिए 1858 में विद्रोह को कुचलने के बाद अंग्रेजी हुकूमत ने गवर्नमेंट अॉफ इंडिया एक्ट 1858 पारित कर भारतीय उपमहाद्वीप का साम्राज्य कंपनी के हाथ से अपने नियंत्रण में ले लिया और शासन व्यवस्था को बुर्जुआ जनवाद की प्रणाली के अनुरूप चलाने का निर्णय लिया। भारत के राजकुमारों, राजप्रमुखों तथा आमजन के नाम महारानी विक्टोरिया की घोषणा, जिसे 1 नवंबर 1858 को इलाहाबाद में जनसभा में पढ़ा गया था, का एक प्रमुख अंश था,
“We hold ourselves bound to the Natives of Our Indian Territories by the same Obligations of Duty which bind Us to all Our other Subjects; and those Obligations, by the Blessing of Almighty God, We shall faithfully and conscientiously fulfil.”
भारतीय उपमहाद्वीप में ब्रिटिश साम्राज्य का पूरा भूभाग तीन भागों में बंटा हुआ था।
ब्रिटिश इंडिया का शहरी क्षेत्र
शुरुआती दौर में मुख्य रूप से सामंतवादी चेतना, पर अंग्रेज़ी प्रशासन के अंग्रेजी अफसरों के संपर्क के कारण मध्यवर्ग के बीच निरंतर बढ़ती हुई अंग्रेजी बुर्जुआ चेतना की भी मौजूदगी। समय के साथ स्वतंत्रता आंदोलन का विकास और इसके साथ ही यूरोप के अनेकों देशों में विकसित हो रही विचारधाराओं के साथ संपर्क के कारण मध्यवर्ग के बीच अत्याधिक विकसित बुर्जुआ चेतना का विकास और साथ-साथ औद्योगिक विकास के कारण सर्वहारा चेतना का भी विकास।
2. ब्रिटिश इंडिया का ग्रामीण क्षेत्र
कृषि भूमि के सामूहिक सामंतवादी स्वामित्व का व्यक्तिगत बुर्जुआ स्वामित्व में रूपांतरण। मुख्य रूप से सामंतवादी चेतना, पर आजादी के आंदोलन का विस्तार और उसके कारण बुर्जुआ चेतना का भी विस्तार।
3. रियासतें
मुख्य रूप से सामंतवादी चेतना। रियासतों के प्रशासन में स्वायत्तता के कारण आजादी के आंदोलन की पहुंच लगभग नदारद थी और इस कारण सभी रियासतों में बुर्जुआ चेतना लगभग नदारद थी। पर दो रियासतों, जो सबसे बड़ी भी थीं - हैदराबाद और जम्मू-कश्मीर - के शीर्ष नेतृत्व का अंग्रेज कुलीन वर्ग के साथ नज़दीकी संपर्क था जिसके कारण इनमें भी आजादी का आंदोलन ब्रिटिश इंडिया में विकसित हो रहे कांग्रेस के आजादी के आंदोलन के लगभग समांतर चल रहा था। एक में आंदोलन का नेतृत्व कम्युनिस्ट पार्टी कर रही थी और दूसरे में नेशनल कॉंफ़्रेंस कर रही थी। कुछ और रियासतों में भी स्थानीय पार्टियाँ रियासत के शासन में जनता के प्रतिनिधित्व की माँग उठाने लगी थीं।
अनेकों रियासतों/प्रांतों में बंटे सामंतवादी उपनिवेश का, एक बुर्जुआ जनवादी राष्ट्रराज्य में रूपांतरण ब्रिटिश पार्लियामेंट द्वारा समय समय पर पारित क़ानूनों के द्वारा राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण हुआ था न कि उत्पादक शक्तियों के विकास के परिणाम स्वरूप। इस कारण आजादी के बाद दोनों ही राष्ट्रों (भारत और पाकिस्तान) में कहीं सामंतवादी चेतना प्रभावी नजर आयेगी और कहीं बुर्जुआ चेतना, सर्वहारा चेतना लगभग नदारद ही थी। ब्रिटिश जनवाद में राष्ट्र प्रमुख की नियुक्ति सामंतवादी चेतना के अनुरूप वंशानुगत और औपचारिक होती है। स्वतंत्र भारत में रियासतों के विलय के बाद भी काफी समय तक रियासत-प्रमुखों के प्रिवी पर्स तथा विशेषाधिकार वंशानुगत ही रहे। प्रिवी पर्स तथा विशेषाधिकार समाप्त कर दिये जाने के बाद आज भी सामंतवादी चेतना जनमानस में गहरे बैठी हुई है जिसके कारण देश में जनवादी चुनाव प्रणाली के बावजूद, बुर्जुआ राजनीतिक संगठनों में परिवारवाद का ही बोलबाला है।
ब्रिटिश पार्लियामेंट ने इंडियन काउंसिल एक्ट 1861 के जरिए भारतीय उपनिवेश का शासन चलाना 1861 में ही शुरू कर दिया था जिसके जरिए पहली बार गवर्नर जनरल की काउंसिल में भारतीयों को नामांकन के जरिए शामिल किया गया था। समान अपराधिक दंड संहिता लागू करने में कोई समस्या नहीं थी पर समान नागरिक संहिता लागू करने में अनेकों बाधाएँ थीं। धार्मिक रूढ़ियां तथा सामाजिक परंपराएँ जनमानस में गहरी बैठी होती हैं और लंबे अरसे तक अभिग्य भौतिक-सामाजिक-चेतना का हिस्सा बनी रहती हैं। इनमें बदलाव की गति अत्याधिक धीमी होती है और उत्पादक शक्तियों के विकास तथा शिक्षा तथा संचार माध्यमों के विस्तार पर निर्भर करती है। इस कारण संपत्ति संबंधी नागरिक संहिता लागू करते समय हिंदू समुदायों, मुस्लिम समुदायों, सिख समुदायों, ईसाई समुदायों तथा आदिवासी समुदायों की धार्मिक तथा सामाजिक परंपराओं के लिए अलग अलग विशेष प्रावधान किये गये। देश में हिंदू तथा मुसलमानों की आबादी की तुलना में बाकी समुदायों की आबादी नगण्य थी (1872 की जनगणना के अनुसार हिंदू लगभग 75% तथा मुसलमान लगभग 20%)। कुछ प्रांतों में मुसलमान या तो बहुसंख्यक थे या लगभग बराबर थे। बदली हुई राजनीतिक परिस्थिति में, हिंदुओं तथा मुसलमानों ने अपने अपने हितों (सजग स्तर पर धार्मिक तथा सामाजिक परंतु अभिज्ञ स्तर पर आर्थिक) की पूर्ति के लिए संगठित होना शुरू कर दिया। 1875 में हिंदुओं ने आर्य समाज का गठन किया तो मुसलमानों ने अलीगढ़ आंदोलन की नींव रखी।
जब तक आमजनता की शासन में कोई भागीदारी नहीं थी तब तक धार्मिक भेद-भाव व्यक्तिगत था और सांप्रदायिकता जैसी कोई चीज नहीं थी। पर बुर्जुआ जनवाद की आहट ने धार्मिक भेद-भाव को सार्वजनिक जीवन में ला दिया और संपन्न वर्ग द्वारा प्रतिनिधित्व के लिए मतदाताओं को धार्मिक आधार पर एकजुट करने के प्रयास ने सांप्रदायिकता को जन्म दिया।
जून 1906 में भारतीय मामलों के नये सचिव उदारवादी जॉन मोर्ले तथा कांग्रेस के अध्यक्ष (दिसंबर 1905-1906) उदारवादी गोखले के बीच सहमति बन गई थी कि काउंसिल के लिए प्रस्तावित सुधारों में चुने हुए भारतीय प्रतिनिधियों को शामिल करने का प्रावधान रखा जायेगा। कांग्रेस में हिंदुओं के बहुमत को देखते हुए कट्टर धार्मिक मुसलमान कुलीनों ने मुसलमानों के प्रतिनिधित्व के दावे के साथ ढाका में दिसंबर 1906 में मुस्लिम लीग का गठन कर लिया। 1909 में इंडियन काउंसिल एक्ट जिसे मोर्ले-मिन्टो रिफॉर्म के नाम से भी जाना जाता है, के जरिये केंद्रीय तथा प्रांतीय काउंसिलों में चुने हुए भारतीयों को शामिल करने का प्रावधान किया गया। इसके साथ ही सार्वजनिक दायरे में मुसलमान और हिंदू राष्ट्रीयताओं का अंतर्विरोध मुखर होने लगा। बुर्जुआवर्ग की, धर्मनिरपेक्ष उदारवादी सजग चेतना के बावजूद, अनभिज्ञ चेतना में धार्मिक रूढ़ियां तथा परंपराएँ लम्बे समय तक मौजूद बनी रहती हैं। जैसे-जैसे आर्थिक दायरे में संपन्न्नों तथा विपन्नों के बीच अंतर्विरोध तीव्र होने लगा वैसे-वैसे राजनीतिक दायरे में, संयुक्त निर्वाचन क्षेत्र के साथ स्वराज की मांग करनेवाली हिंदू बहुमत वाली कांग्रेस, तथा मुसलिम राष्ट्रीयता की स्वायत्तता के साथ स्वराज की मांग करनेवाली मुस्लिम लीग के बीच अंतर्विरोध उग्र होने लगा।
28 दिसंबर 1885 को गठित की गई, 1905 से स्वतंत्रता आंदोलन में पदार्पण करने वाली, 1920 से स्वतंत्रता आंदोलन की बागडोर संभालने वाली और 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्र भारत के भविष्य की जिम्मेदारी संभालने वाली कॉंग्रेस की सामूहिक चेतना के आंतरिक अंतर्विरोधों को, और स्थानीय तथा वैश्विक परिवेश के साथ उसके द्वंद्वात्मक संबंध को समझना भी जरूरी है।
उस दौर में भारतीय अर्थव्यवस्था का प्रमुख अंतर्विरोध, सामंतवादी उत्पादन संबंधों तथा बुर्जुआ उत्पादन संबंधों के बीच था। कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग के अंदर स्वराज के एकाधिकारवादी स्वरूप की तथा संघीय स्वरूप की मांग का अंतर्द्वंद्व इसी अंतर्विरोध का प्रतिचित्रण था। मुसलमानों के तथा दलितों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र या एक ही निर्वाचन क्षेत्र के अंदर सीटों के आरक्षण की व्यवस्था की माँगों के बीच का अंतर्द्वंद्व भी इसी अंतर्विरोध का प्रतिचित्रण ही था। भारतीय अर्थव्यवस्था आज भी अर्धसामंतवादी अर्धपूंजीवादी है और इसीलिए आज भी केंद्रीय सरकार तथा प्रांतीय सरकारों के बीच राज्य-व्यवस्था के एकाधिकारवादी स्वरूप तथा संघीय स्वरूप का अंतर्द्वंद्व प्रमुख अंतर्द्वंद्व है।
1858 के बाद ब्रिटिश पार्लियामेंट ने, बुर्जुआ सोच के अनुसार, ब्रिटिश इंडिया का शासन जनता की सीमित भागीदारी के साथ चलाने का निर्णय किया था। आर्थिक नीति स्पष्ट थी - भारतीय उपमहाद्वीप के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन और उसके अनुषांगिक सीमित स्थानीय औद्योगीकरण।
केंद्रीय तथा प्रांतीय काउंसिलों में चुने हुए प्रतिनिधियों के प्रावधान के कारण न केवल धार्मिक आधार पर, बल्कि क्षेत्रीय तथा भाषाई आधार पर भी समूह गठित होने लगे और विविध अंतर्विरोध मुखर होने लगे। कांग्रेस के आंतरिक अंतर्विरोध भी तीव्र होने लगे और गुटों में विभाजन के कारण आजादी के आंदोलन पर कांग्रेस की पकड़ कमजोर होने लगी। गोखले के नेतृत्व में उदारवादी गुट संवैधानिक तरीके से अंग्रेज़ों के सहयोग के साथ स्वराज की ओर बढ़ना चाहता था पर तिलक के नेतृत्व में उग्रवादी गुट आंदोलन के जरिए अंग्रेज़ी सरकार पर दबाव बनाना चाहता था। 1907 में सूरत अधिवेशन में कांग्रेस में विभाजन हो गया और उग्रवादी गुट कांग्रेस से अलग हो गया।
तुरंत ही अंग्रेज़ी सरकार ने तिलक को देशद्रोह के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया और 1908 में छह साल की सज़ा देकर मांडले जेल में क़ैद कर दिया। तिलक की पैरवी मुहम्मद अली जिन्ना ने की जो 1904 से कांग्रेस के सक्रिय सदस्य थे, धर्मनिरपेक्ष थे और हिंदू-मुस्लिम एकता के तथा संवैधानिक तरीके से स्वराज के समर्थक थे। राष्ट्रीय आजादी के कांग्रेस के आंदोलन में जिन्ना की ख्याति को देखते हुए अनेकों मुस्लिम नेताओं ने उन्हें मुस्लिम लीग की बागडोर संभालने का आग्रह किया। इस शर्त पर कि, मुस्लिम लीग ऐसा कोई काम नहीं करेगी जिसका जिन्ना की आजादी के आंदोलन की अवधारणा से कोई टकराव हो, 1913 में जिन्ना ने मुस्लिम लीग भी ज्वाइन कर ली। अप्रैल 1913 में गोखले के नेतृत्व में इंग्लैंड जानेवाले कांग्रेस के प्रतिनिधिमंडल में जिन्ना शामिल थे। गोखले ने जिन्ना के बारे में कहा था, “has true stuff in him, and that freedom from all sectarian prejudice which will make him the best ambassador of Hindu-Muslim Unity.” 1914 में लंदन जानेवाले कांग्रेस प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व जिन्ना ने ही किया था जहाँ उनकी मुलाक़ात गांधी से हुई थी। उसी साल तिलक भी सज़ा पूरी कर वापस आ गये तथा उग्रवाद को छोड़कर उदारवाद के समर्थक हो गये और कांग्रेस की एकता की बात शुरू हो गई। इसी समय 1915 में गांधी साउथ अफ़्रीका से वापस आ गये। सर्वदेशक हिंदू सभा की घोषणा 1915 में हरिद्वार कुंभ मेले के अवसर पर की गई जिसमें महात्मा गांधी भी शामिल हुए थे। (1921 में इसका नाम बदल कर अखिल भारत हिंदू महासभा कर दिया गया।)
1916 में कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग दोनों ने लखनऊ में अपना अधिवेशन बुलाया। मुहम्मद अली जिन्ना दोनों के सदस्य थे और हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए लखनऊ पैक्ट पर आमसहमति बनाने में सफल रहे। इस समझौते में मुसलमानों के लिए काउंसिल्स में एक तिहाई सीटों का तथा अलग निर्वाचन मंडल का प्रावधान रखा गया था। मदनमोहन मालवीय तथा हिंदू महासभा ने लखनऊ पैक्ट का विरोध किया। इसी सम्मेलन में तिलक अपने साथियों के साथ कांग्रेस में वापस आ गये और कांग्रेस ने पुन: आजादी के आंदोलन की बागडोर संभाल ली। शीघ्र ही, चम्पारन सत्याग्रह की सफलता के साथ ही, जनता के बीच तथा आंदोलन में सक्रिय अनेकों गुटों के बीच स्वीकार्यता बना कर गांधी ने कांग्रेस पर अपनी मज़बूत पकड़ बना ली।
एक राष्ट्रीय संगठन के रूप में कॉंग्रेस की मूलभूत चेतना उस दौर की उत्पादन व्यवस्था - सामंतवादी बुर्जुआ - के अनुरूप थी। कांग्रेस की राजनीतिक विचारधारा में व्यक्तिवादी तथा जनवादी, और धार्मिक रूढ़िवादी तथा सहिष्णु प्रगतिशील विचारों की मौजूदगी बराबर से रही है, और रणनीति प्रगतिशील से अधिक यथास्थितिवादी रही है। राष्ट्र-राज्य की अवधारणा प्रत्यक्ष रूप में बुर्जुआ जनवाद के अनुरूप संघीय गणराज्य की थी, पर परोक्ष में सामंती अधिनायकवाद के अनुरूप एकलस्वरूपी गणराज्य की थी।
बुर्जुआ जनवादी धर्मनिरपेक्ष प्रगतिशील धारा का प्रतिनिधित्व करनेवालों में मुहम्मद अली जिन्ना, पंडित मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू, सुभाषचंद्र बोस तथा जयप्रकाश जैसे नेता थे। सामंती अधिनायकवादी कट्टर धार्मिक रूढ़िवादी धारा का प्रतिनिधित्व करनेवालों में सरदार पटेल, राजेंद्र प्रसाद, गोविंद बल्लभ पंत जैसे नेता थे। अत्याधिक पिछड़ी पारंपरिक कृषि प्रधान सामंतवादी अर्थव्यवस्था वाले और रूढ़िवादी धार्मिक हिंदू बहुल आबादी वाले देश की आजादी के आंदोलन का नेतृत्व करनेवाले एक संगठन के रूप में आंतरिक अंतर्विरोधी दोनों धाराओं के बीच संतुलन रखने तथा ब्रिटिश बुर्जुआ जनवाद के साथ सामंजस्य रखते हुए आजादी के आंदोलन का नेतृत्व करने की अत्याधिक क्लिष्ट क्षमता रखने वाली कांग्रेस का नेतृत्व करने के लिए, धार्मिक महात्मा गांधी सर्वाधिक उपयुक्त व्यक्ति थे जो निजी जीवन में कट्टर धार्मिक सनातनी हिंदू थे पर राजनीतिक जीवन में सुविधानुसार धर्मनिरपेक्ष बुर्जुआ जनवादी यथास्थितिवादी व्यक्ति थे। स्वघोषित तौर पर वे सनातनी हिंदू थे इसलिए हिंदू आबादी के बीच स्वत: स्वीकार्य थे और धार्मिक सहिष्णुता के कारण उदारवादी मुसलमानों को भी स्वीकार्य थे। आंदोलन में सत्याग्रह तथा असहयोग की अपनी रणनीति के कारण वे पार्टी में उदारवादी और उग्रवादी दोनों गुटों को मान्य थे। देश में फैलाये जा रहे धार्मिक उन्माद और हिन्दुओं तथा मुसलमानों के बीच बढ़ती वैमनस्यता से कांग्रेस की वैचारिक-सामाजिक-चेतना अछूती नहीं रह सकती थी। ऐसे में व्यक्तिगत रूप से पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष तथा राजनीतिक जीवन में स्पष्ट रूप से बुर्जुआ जनवादी प्रगतिशील मुहम्मदअली जिन्ना के लिए कांग्रेस में बने रह पाना असंभव था।
1920 में दो महत्वपूर्ण घटनायें हुईं जिसके कारण कांग्रेस के अंदर वैचारिक ध्रुवीकरण तीक्ष्ण हो गया जिसमें संतुलन सामंती अधिनायकवादी ताकतों के पक्ष में हो गया। कांग्रेस के अंदर, धार्मिक रूढ़िवादी हिंदुओं तथा उदारवादी हिंदू मुसलमान दोनों ने गांधी के नेतृत्व में, ऑटोमान साम्राज्य को दुनिया भर के मुसलमानों का खलीफा बनाये जाने के आंदोलन का समर्थन करने का तथा मोंटेगू-चेम्सफोर्ड सुधारों का विरोध करने के लिए असहयोग आंदोलन करने का फैसला किया।
धर्म निरपेक्ष जिन्ना कांग्रेस द्वारा खलीफत आंदोलन का समर्थन करने के हक़ में नहीं थे। उनका मत था कि खलीफत आंदोलन भारत में कट्टर मुसलमानों को ताक़त देगा और साथ ही हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण को तेज़ कर कट्टर हिंदुओं को भी ताक़त देगा जो हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए घातक होगा। जिन्ना असहयोग आंदोलन के भी पक्ष में नहीं थे। उनका मत था कि असहयोग आंदोलन अराजकता को जन्म देगा जो सरकार को दमन का अवसर देगा और फलस्वरूप जनआंदोलन को कमजोर करेगा। गांधी जी के नेतृत्व में कांग्रेस की हिंदू तथा मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति और अनेकों कांग्रेसी नेताओं की हिंदू महासभा के साथ बढ़ती नज़दीकियों के कारण धर्मनिरपेक्ष जिन्ना कांग्रेस में अलग-थलग पड़ गये थे। कांग्रेस के 1920 के नागपुर अधिवेशन में जिन्ना के खिलाफ नारेबाज़ी की गई और उन्हें अपनी बात रखने का मौक़ा नहीं दिया गया, और इस अधिवेशन के साथ ही उन्होंने कांग्रेस को अलविदा कह दिया।
1922 में ऑटोमान साम्राज्य की समाप्ति और प्रगतिशील कमाल अतातुर्क द्वारा तुर्की को गणराज्य घोषित किये जाने के बाद खलीफत आंदोलन समाप्त हो गया। 1922 में ही चौरीचौरा कांड के बाद गांधी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया। उसके बाद अंग्रेजी हुकूमत ने दमन चक्र चलाया और अनेकों कांग्रेसी नेताओं को जेल में बंद कर दिया। आंदोलन वापस लेने से क्षुब्ध और हताश अनेकों नौजवानों ने हिंसक आंदोलन की राह पकड़ ली। 1920 में कांग्रेस द्वारा लिए गये दोनों निर्णयों पर, जिन्होंने न केवल आजादी के आंदोलन को बल्कि हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रयासों को भी अपूरणीय क्षति पहुँचाई, जिन्ना की आशंका सही साबित हुई।
4 फरवरी 1922 चौरीचौरा कांड के कारण गांधी जी द्वारा असहयोग आंदोलन वापस लेने से नाराज़ होकर अतिवादियों ने कांग्रेस को छोड़कर लाला हरदयाल और रामप्रसाद बिस्मिल की अगुआई में हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसियेशन का गठन किया जिसके नाम में, भगतसिंह के आने के बाद, सोशलिस्ट शब्द भी जोड़ दिया गया। उदारवादियों ने भी मोतीलाल नेहरू तथा चितरंजन दास के नेतृत्व में कांग्रेस को छोड़कर स्वराज पार्टी का गठन किया जिसे कुछ साल बाद भंग कर दिया गया। परंतु जवाहरलाल नेहरू के प्रतिनिधित्व में बुर्जुआ जनवादी तत्वों ने तथा सरदार पटेल के प्रतिनिधत्व में सामंती अधिनायकवादी तत्वों ने, महात्मा गांधी के नेतृत्व में मध्यमार्गीय विचारधारा तथा अंग्रेज़ों के साथ दोस्ताना संघर्ष की नीति का ही साथ दिया और कांग्रेस ने कमजोर पड़ चुके आजादी के आंदोलन की बागडोर अपने हाथ में थामे रखी। मार्च 1926 में मोतीलाल पुन: कॉंग्रेस में वापस आ गये।
बीसवीं सदी के बीस के दशक तक आते आते कांग्रेस के अंदर तीन विचारधाराओं - कट्टर धार्मिक सामंती अधिनायकवादी, उदार धर्मनिरपेक्ष बुर्जुआ जनवादी और रूसी समाजवाद से अधिक फ़्रांसीसी समाजवाद से प्रभावित समाजवादी - के बीच वर्चस्व का संघर्ष अपने चरम पर पहुंच चुका था। तीस के दशक तक आते आते स्वभाविक रूप से कट्टर मुसलमान मुस्लिम लीग के रूप में तथा कट्टर समाजवादी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के रूप में कांग्रेस से बाहर हो गये और तीनों धाराओं के उदारवादी कांग्रेस में ही रह गये। कांग्रेस में हिंदुओं के बहुमत के कारण, कट्टर हिंदूवादियों के द्वारा हिंदूमहासभा के गठन के बावजूद अनेकों कट्टर हिंदूवादी कांग्रेस में ही बने रहे। सौ साल के इतिहास में कांग्रेस सुविधानुसार अलग अलग समय पर तीनों धाराओं के प्रतिनिधियों को संतुष्ट करने के लिए निर्णय लेती रही है पर राजसत्ता के अधिनायकवादी चरित्र के अनुरूप, सत्ता के विकेंद्रीकरण से अधिक केंद्रीकरण के लिए, और राष्ट्र के गठन में संघीय (Federal) से अधिक एकल स्वरूप (Unitary) के लिए प्रयासरत रही है।
नेहरू पिता-पुत्र की आजादी के आंदोलन में सक्रिय सहभागिता और पिता-पुत्री की आजादी के आंदोलन में तथा भारतीय गणराज्य के गठन व आर्थिक विकास में सहभागिता के कारण, नेहरू-गांधी परिवार की पारिवारिक चेतना कांग्रेस की सामूहिक चेतना के साथ एकीकृत हो गई है। परिवार और पार्टी की बुर्जुआ जनवाद के लिए प्रतिबद्धता निर्विवाद है। यदा-कदा अनेकों भटकावों के बावजूद, नेहरू-गांधी परिवार के सदस्यों का परिवार के साथ द्वंद्वात्मक संबंध तथा परिवार का कांग्रेस के साथ द्वंद्वात्मक संबंध इस प्रतिबद्धता को सुनिश्चित करता रहता है। अनेकों बार नेहरू-गांधी परिवार के नेतृत्व के बावजूद कांग्रेस के अंदर मौजूद सामंतवादी चेतना के दबाव में कुछ प्रतिगामी फ़ैसले लिए गये पर पर अंतत: दिशा बुर्जुआ जनवादी प्रगतिशील ही रही।
ठहरे हुए रिश्तों को गति देने और मुस्लिम लीग और कांग्रेस के बीच की खाई को पाटने के लिए ताकि वे नए संविधान का प्रारूप अंग्रेजों के सामने पेश कर सकें, जिन्ना की अध्यक्षता में कई गणमान्य मुसलमानों ने 20 मार्च 1927 को दिल्ली में बैठक की और आजाद भारत में मुसलमानों की भागीदारी की रूप-रेखा तैयार करने के लिए ‘मुस्लिम प्रपोज़ल’ तैयार किया जिसमें सिंध को अलग प्रांत बनाने का प्रस्ताव भी था।। जिन्ना जानते थे कि मुस्लिम लीग और कांग्रेस के बीच सबसे बड़ा विवाद मतदाताओं का मामला था। कांग्रेस के प्रमुख नेता संयुक्त निर्वाचक मंडल की पैरवी कर रहे थे क्योंकि उनके अनुसार पृथक निर्वाचक मंडल भारतीय राष्ट्रवाद की नींव को कमजोर कर देता। जबकि मुस्लिम लीग, अपने कमजोर प्रतिनिधित्व के चलते मुसलमानों की सुरक्षा के लिए चिंतित, अलग निर्वाचक मंडल की अपनी मांग को छोड़ने के लिए तैयार नहीं थी। जिन्ना और उनकी टीम ने महसूस किया कि वे कांग्रेस को एक साझा एजेंडे को स्वीकार करने के लिए तभी राजी कर सकते हैं जब वे लीग की पृथक निर्वाचक मंडल की मांग को वापस ले लें। उन्होंने चर्चा की और उन शर्तों को निर्धारित करने का प्रयास किया जिनके साथ संयुक्त निर्वाचन प्रणाली को स्वीकार किया जा सकता था। लंबी चर्चा के बाद सर्वसम्मति से यह निर्णय लिया गया कि लीग को कुछ प्रस्तावों के आधार पर कांग्रेस के साथ एक समझौते को स्वीकार करना चाहिए; प्रस्तावित समझौते को दिल्ली प्रस्तावों के रूप में जाना जाने लगा। यह प्रपोज़ल कांग्रेस को भेज दिया गया था और कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने इस प्रपोज़ल की सराहना की और हिंदू-मुस्लिम नेताओं से विचार-विमर्श के लिए एक सब-कमेटी का गठन किया। 15 से 18 मई 1927 को बंबई अधिवेशन में ‘मुस्लिम प्रपोज़ल’ के आधार पर वर्किंग कमेटी ने विस्तृत प्रस्ताव पारित किया जिसका अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने उसी समय अनुमोदन कर दिया था। ‘मुस्लिम प्रपोज़ल’ में ये माँगें थीं,
1. सिंध को बंबई से अलग कर एक स्वतंत्र प्रांत के रूप में गठित किया जाना चाहिए।
2. उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत और बलूचिस्तान में सुधारों को भारत के किसी भी अन्य प्रांत की तरह ही पेश किया जाना चाहिए।
3. जब तक और जब तक उपरोक्त प्रस्तावों को लागू नहीं किया जाता, तब तक मुसलमान अलग निर्वाचक मंडल के माध्यम से अपने प्रतिनिधित्व के अधिकार का त्याग नहीं करेंगे। मुस्लिम अलग-अलग समुदायों की आबादी के अनुपात में निर्धारित सीटों के आरक्षण के साथ संयुक्त निर्वाचक मंडल के पक्ष में अलग निर्वाचक मंडल की मांग को छोड़ने के लिए तैयार होंगे, यदि उपरोक्त दो प्रस्तावों को मुसलमानों की पूर्ण संतुष्टि के लिए लागू किया गया। इसके साथ ही निम्नलिखित प्रस्ताव भी स्वीकार किये जाने चाहिए।
4. सिंध, बलूचिस्तान और NWFP में हिंदू अल्पसंख्यकों को सीटों के आरक्षण के रूप में उतनी ही रियायतें दी जाएंगी, जितनी मुस्लिमों को उनकी आबादी के अनुपात में हिंदू बहुसंख्यक प्रांतों में मिलेंगीं। पंजाब और बंगाल में विभिन्न समुदायों के लिए जनसंख्या के अनुसार सीटों का आरक्षण किया जाना चाहिए।
5. मुसलमानों को केंद्रीय विधानमंडल में दिया जाने वाला प्रतिनिधित्व 1/3 से कम नहीं होना चाहिए।
6. धार्मिक स्वतंत्रता जैसे प्रावधानों के अतिरिक्त, संविधान में एक और गारंटी होनी चाहिए कि सांप्रदायिक मामलों पर किसी भी विधेयक या प्रस्ताव पर विचार या उसे पारित नहीं किया जाएगा यदि संबंधित समुदाय के सदस्यों का तीन-चौथाई बहुमत इसका विरोध करता है।
हालांकि मुस्लिम लीग इन प्रस्तावों के कारण विभाजित थी और मुस्लिम लीग के कुछ कट्टर नेताओं ने, मुख्य रूप से पंजाब से, सर मुहम्मद शफी के नेतृत्व में, जिन्ना समूह से अलग होने का फैसला कर लिया।
बढ़ती हुई वामपंथी गतिविधियों ने अंग्रेज़ी सरकार की नींद उड़ा दी थी, और अंग्रेज़ी सरकार ने 10 साल पूरे होने का इंतज़ार न कर, ज़िम्मेदार सरकार की संभावना का आंकलन करने के लिए नवंबर 1927 में साइमन कमीशन का गठन कर दिया जो 3 फरवरी 1928 को बंबई पहुंच गया। कमीशन में किसी भी भारतीय के शामिल न किये जाने से अनेकों आंदोलनकारी तथा क्रांतिकारी नाराज़ थे। गांधी और जवाहरलाल नेहरू की अगुआई में कॉंग्रेस ने तथा जिन्ना की अगुआई में मुस्लिम लीग ने साइमन कमीशन के बहिष्कार की घोषणा कर दी, पर अंबेडकर, हिंदू महासभा, सेंट्रल सिख लीग तथा मुस्लिम लीग के एक गुट ने समर्थन करने का निर्णय किया। भारतीय मामलों के मंत्री लॉर्ड बिरकेनहैड ने भारतीयों को चुनौती दी थी कि अगर कर सकते हैं तो संवैधानिक सुधारों के लिए वे अपना स्वयं का प्रस्ताव तैयार करें।
दिसंबर 1927 में कॉंग्रेस ने मद्रास सम्मेलन में साइमन कमीशन का बायकॉट करने का प्रस्ताव पारित कर ऑल पार्टी कॉंफ़्रेंस बुलाकर नये संविधान की रूप रेखा तैयार करने के लिए समिति गठन करने का फ़ैसला किया। ऑल पार्टी कॉंफ़्रेंस में हिंदू महासभा, मुस्लिम लीग, सेंट्रल सिख लीग, इंडियन स्टेट्स पीपुल्स कॉंफ़्रेंस, एआईटीयूसी, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ बांबे और अवध, आगरा, बंगाल, बिहार तथा मद्रास के ज़मींदारों के संघ को भी शामिल किया गया था।
आम जनता के बीच क्रांतिकारियों की लोकप्रियता तथा पूर्ण स्वराज की मांग बढ़ती जा रही थी। कांग्रेस के अंदर बुर्जुआ जनवादी चाहते थे कि पूर्ण स्वराज के आधार पर संविधान की रूपरेखा बने, पर सामंती अधिनायकवादी किसी न किसी रूप में राजसत्ता पर अंग्रेज़ों का नियंत्रण चाहते थे। गांधी जी ने सुझाव दिया कि फ़िलहाल डोमिनियन राज की मांग की जाये और अगर अंग्रेज़ इस मांग को दो साल के भीतर पूरी नहीं करते हैं तो फिर पूर्ण स्वराज की मांग की जाये।
ऑल पार्टी कॉन्फ़्रेन्स की पहली मीटिंग दिल्ली में 12-22 फ़रवरी 1928 को हुई। इस मीटिंग में सबसे पहले कांस्टीट्यूशन की रूपरेखा पर चर्चा हुई। कुछ सदस्यों का कहना था कि 1921 के कांग्रेस के सम्मेलन में पहले भी पूर्ण स्वराज्य के लिए मांग उठ चुकी थी, परंतु बहुतों का सोचना था कि अंग्रेज़ी सरकार इसके लिए तैयार नहीं होगी इसलिए समिति ने कनाडा तथा ऑस्ट्रेलिया की तर्ज़ पर डोमिनियन स्टेटस के आधार पर कांस्टीट्यूशन बनाये जाने का सुझाव रिपोर्ट में शामिल किया।
कॉन्फ़्रेंस की 8-11 मार्च 1928 की मीटिंग में सांप्रदायिक मसले पर गहरी चर्चा हुई और यह पाया गया कि सिंध के विभाजन तथा अल्पसंख्यकों के लिए सीटों के आरक्षण पर मुस्लिम लीग तथा हिंदू महासभा के बीच कोई सहमति नहीं है। आरक्षण के मुद्दे पर सिखों को भी घोर आपत्ति थी। दोनों मुद्दों पर अलग-अलग विचार के लिए दो समितियों का गठन कर दिया गया। अप्रैल 1928 में हिंदू महासभा ने अपने जबलपुर अधिवेशन में ‘मुस्लिम प्रपोज़ल’ के कई प्रावधानों पर आपत्ति दर्ज करते हुए प्रस्ताव पारित किया। 19 मई 1928 को ऑल पार्टी कॉंफ़्रेंस ने बंबई में अपनी मीटिंग में नया संविधान तैयार करने के लिए मोतीलाल नेहरू के नेतृत्व में कमेटी का गठन किया जिसमें सुभाष चंद्र बोस तथा जवाहरलाल नेहरू, जिन्हें समिति का सचिव नामित किया गया था, भी शामिल थे। कमेटी ने 10 अगस्त 1928 को अपनी रिपोर्ट कॉन्फ़्रेंस के सामने पेश कर दी। कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा -
* ‘इस प्रकार जब 19 मई 1928 को बंबई में फिर से सर्वदलीय सम्मेलन की बैठक हुई तो स्थिति आशाजनक नहीं थी। साम्प्रदायिक संगठनों के बीच दूरी और भी बढ़ गई थी और उनमें से प्रत्येक ने अपने रवैये में कठोरता ला दी थी और कोई भी इसे बदलने या संशोधित करने के लिए तैयार नहीं था। सिंध और आनुपातिक प्रतिनिधित्व पर दिल्ली में नियुक्त दो उप-समितियों ने कोई रिपोर्ट पेश नहीं की थी।’
* ‘लेकिन जब हम पाते हैं कि मद्रास कांग्रेस और मुस्लिम लीग का दृष्टिकोण हिंदू महासभा और सिख लीग के बिल्कुल विपरीत है, तो दोनों में से किसी को भी पूरी तरह से स्वीकार करने में हमें सम्मानपूर्वक अपनी असमर्थता व्यक्त करनी चाहिए।'
* ‘इसलिए प्रतिनिधित्व की किसी भी तर्कसंगत प्रणाली के लिए एक शर्त के रूप में अलग निर्वाचक मंडल को पूरी तरह से खारिज कर दिया जाना चाहिए। हम केवल संयुक्त या मिश्रित निर्वाचक मंडल रख सकते हैं।’
* ‘सिंध में बड़ी संख्या में मुसलमान रहते हैं। एक नया प्रांत बनाया जाए या नहीं, सिंध को मुख्य रूप से मुस्लिम क्षेत्र बना रहना चाहिए। और अगर इस विशाल बहुमत की इच्छा नहीं मानी जाती है, तो यह न केवल आत्मनिर्णय के सिद्धांत की हत्या करना होगा, बल्कि इसका परिणाम उस बहुसंख्यक आबादी को नाराज करना होगा। शांतिपूर्ण और सौहार्दपूर्ण ढंग से प्रगति करते हुए स्वतंत्र भारत की चाह रखने वाला कोई भी भारतीय इस परिणाम को अलग नजर से नहीं देख सकता है। राष्ट्रवाद के व्यापक दृष्टिकोण से यह कहना कि कोई "सांप्रदायिक" प्रांत नहीं बनाया जाना चाहिए, एक तरह से, अभी भी व्यापक अंतर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण से, यह कहने के बराबर है कि कोई अलग राष्ट्र नहीं होना चाहिए। इन दोनों बयानों में कुछ हद तक सच्चाई है लेकिन कट्टरतम अंतर्राष्ट्रीयतावादी मानते हैं कि पूर्ण राष्ट्रीय स्वायत्तता के बिना अंतर्राष्ट्रीय राज्य का निर्माण असाधारण रूप से कठिन है। इसी तरह पूर्ण सांस्कृतिक स्वायत्तता और सांप्रदायिकता के बिना, इसके बेहतर पहलू में संस्कृति है, एक सामंजस्यपूर्ण राष्ट्र बनाना मुश्किल होगा।’
* ‘हमें संदेह है कि अलगाव का वास्तविक विरोध किसी उच्च राष्ट्रीय विचारों के कारण नहीं है, बल्कि आर्थिक विचारों के कारण है; हिंदुओं के इस डर से कि अगर मुसलमानों के पास अलग क्षेत्र में मामलों का प्रभार होगा तो उनकी आर्थिक स्थिति खराब हो सकती थी।’
* ‘हर कोई साम्प्रदायिक भावना पर पछताता है और उसे राजनीति के शरीर से उखाड़ फेंकना चाहता है। लेकिन यह स्पष्ट है कि यह केवल एकता की बात करने और पवित्र बातों में लिप्त होने से नहीं चल सकता है जो हमें कहीं नहीं ले जाती है। साम्प्रदायिकता तभी जा सकती है जब लोगों का ध्यान अन्य चैनलों की ओर निर्देशित किया जाता है, जब वे उन सवालों में दिलचस्पी लेने लगते हैं जो समाज के कृत्रिम विभाजन पर आधारित काल्पनिक भय के बजाय वास्तव में उनके दैनिक जीवन को प्रभावित करते हैं।’
* ‘हम यह कहकर स्वयं को संतुष्ट करते हैं कि (जबकि) हम मानते हैं कि एक भारतीय संघ, जो कि स्थानीय इकाइयों में अधिकतम स्वायत्तता के साथ संगत होगा, चाहे प्रांत हों या राज्य, जिम्मेदार सरकार के लिए एकमात्र ठोस आधार हो सकता है।’
* ‘ऐसा करने में यह स्पष्ट है कि हमारी पहली सावधानी यह होनी चाहिए कि हमारे मौलिक अधिकारों की गारंटी इस प्रकार हो कि किसी भी परिस्थिति में उन्हें वापस लेने की अनुमति न हो, अल्प संख्यकों और मजलूमों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए।’
* ‘हमने केंद्रीय और प्रांतीय विधानमंडल दोनों के किसी भी विषय में समवर्ती शक्तियों का प्रावधान नहीं किया है। इससे घर्षण होने की संभावना है और इसलिए हमने दोनों के कार्यों को बिना किसी ओवरलैपिंग के पूरी तरह से अलग-अलग खांचों में रखने का प्रयास किया है।’
इस बीच मुस्लिम लीग की कॉउंसिल ने तय किया कि अगर मुस्लिम प्रपोज़ल को पूरी तरह लागू नहीं किया जाता है तो तैयार किये जा रहे कांस्टीट्यूशन पर सहमति देने के पहले उन्हें लीग से सलाह करनी होगी। इन प्रस्तावों को पूर्ण रूप से स्वीकार या अस्वीकार किया जाना था। पृथक निर्वाचक मंडल के अधिकार का त्याग मुसलमानों द्वारा एक अभूतपूर्व रियायत थी और जिन्ना की यह एक बड़ी उपलब्धि थी कि उन्होंने अपने सहयोगियों को इसे स्वीकार करने के लिए मना लिया था। यह पहली बार था जब मुस्लिम लीग संयुक्त निर्वाचन मंडल के लिए सहमत हुई थी। पर हिंदू महासभा के तथा कांग्रेस के अंदर ही सामंती अधिनायकवादियों के विरोध के कारण इन माँगों को मोतीलाल नेहरू रिपोर्ट की सिफारिशों में शामिल नहीं किया गया। कमेटी में मुस्लिम लीग के सदस्यों ने रिपोर्ट पर हस्ताक्षर नहीं किये। इसके बाद भविष्य में मुस्लिम लीग कभी भी पृथक निर्वाचन मंडल की मांग छोड़ने के लिए तैयार नहीं हुई।
नेहरू कमेटी की रिपोर्ट पर चर्चा और अनुमोदन के लिए दिसंबर 1928 में कॉंफ़्रेंस की मीटिंग बुलाई गई। जिन्ना ने एक बार फिर हिंदू-मुस्लिम खाई को पाटने का प्रयास करते हुए रिपोर्ट में निम्न संशोधन सुझाये।
1. केंद्रीय विधायिकाओं में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व एक तिहाई से कम न हो। (रिपोर्ट में एक चौथाई का अनुमोदन किया गया था।)
2. अगर सार्विक वयस्क मताधिकार स्वीकार नहीं किया जाता है तो पंजाब तथा बंगाल में मुसलमानों के लिए आबादी के अनुपात में सीटें आरक्षित की जायें। (रिपोर्ट मे पंजाब तथा बंगाल में किसी भी प्रकार के आरक्षण को नकार दिया गया था क्योंकि सार्विक वयस्क मताधिकार का प्रस्ताव रखा गया था।)
3. संविधान का स्वरूप संघीय हो और अवशिष्ट शक्तियाँ प्रांतों के पास हों। (रिपोर्ट में अवशिष्ट शक्तियाँ केंद्र के पास रखी गईं थीं।)
4. सिंध को तुरंत अलग प्रांत बनाया जाये तथा नॉर्थ वेस्ट फ़्रंटियर प्रॉविंस तथा बलूचिस्तान में जल्दी से जल्दी सुधार लागू किये जायें। (रिपोर्ट में सिंध को अलग प्रांत बनाये जाने से पहले वित्तीय आंकलन किये जाने का प्रावधान रखा गया था।)
रिपोर्ट में रियासतों की स्वायत्तता को बराकर रखा गया था;
‘The Commonwealth shall exercise the same rights in relation to, and discharge the same obligations towards, the Indian States, arising out of treaties or otherwise, as the Government of India has hitherto exercised and discharged’
तथा संगठनात्मक ढाँचे की आवश्यकता को रेखांकित करते हुए कहा गया था कि भारतीय संघ, जो कि स्थानीय इकाइयों में अधिकतम स्वायत्तता के साथ संगत होगा, चाहे प्रांत हों या राज्य, जिम्मेदार सरकार के लिए एकमात्र ठोस आधार हो सकता है, इसके बावजूद समिति ने एकलस्वरूप डोमीनियन का प्रस्ताव रखा था।
“डोमिनियन ..... जिसकी संसद को भारत की शांति, व्यवस्था और अच्छे शासन के लिए कानून बनाने की शक्तियां हों, और उस संसद के लिए जिम्मेदार एक कार्यपालिका हो, और इसे भारतीय राष्ट्रमंडल के रूप में जाना जाएगा। .... यह अधिनियम और राष्ट्रमंडल की संसद द्वारा इसके तहत बनाए गए सभी अधिनियम प्रत्येक प्रांत और राष्ट्रमंडल के प्रत्येक भाग की अदालतों और लोगों पर बाध्यकारी होंगे।”
तीव्र आंतरिक मतभेदों के बावजूद कांग्रेस मोतीलाल नेहरू कमेटी की सिफारिशों को देश की ओर से, ऑल पार्टी कॉन्फ़्रेंस द्वारा अनुमोदित प्रस्तावित संविधान के रूप में पेश करने में सफल रही। नेहरू कमेटी ने रेखांकित किया था कि पूर्ण स्वायत्तता के बिना एक सामंजस्यपूर्ण राष्ट्र बनाना मुश्किल होगा, पर समवर्ती शक्तियों के प्रावधान को खारिज करने के बावजूद प्रस्तावित संविधान के प्रारूप में, केंद्रीय प्रतिनिधि सभा द्वारा बनाये गये क़ानूनों का सारे राष्ट्र में प्रभावी होने की शर्त रखा जाना दर्शाता है कि कांग्रेस तथा अन्य समूहों की चेतना में सामंती अधिनायकवादी विचार का बर्चस्व था और बुर्जुआ जनवादी सोच अल्पमत में थी। स्वतंत्रता आंदोलन का आगे का इतिहास इस बात को सत्यापित करता है कि हिंदू बहुल आबादी के बीच अल्पसंख्यक मुसलमानों की सुरक्षा के लिए, मुहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग की पृथक निर्वाचन मंडल और अवशिष्ट शक्तियों के साथ स्वायत्त प्रांतों की मांग निराधार नहीं थी।
जहाँ कांग्रेस सामंती तथा बुर्जुआ हितों को साधते हुए, गांधी के नेतृत्व में मध्यमार्गीय नीति अपनाकर, अहिंसक आंदोलन तथा अंग्रेज़ी हुकूमत के साथ समझौते करते हुए आगे बढ़ रही थी वहीं अनेकों निम्न मध्यवर्गीय, चंद्रशेखर आजाद और भगतसिंह जैसे क्रांतिकारियों को आगे रख कर, मजदूरवर्ग के नेतृत्व के साथ आजादी के आंदोलन को वामपंथी दिशा देने का प्रयास कर रहे थे। गांधी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन शुरू करने और फिर चौरीचौरा कांड के बाद उसे वापस लेने के कारण कांग्रेस की और गांधी की विश्वसनीयता कमजोर हो गई थी। एक ओर जिन्ना के कांग्रेस छोड़ देने से कांग्रेस में मुस्लिम जनवादियों की स्थिति कमजोर हो गई थी और मुस्लिम लीग से दूरी बढ़ गई थी, दूसरी ओर उग्रवादियों द्वारा कॉंग्रेस छोड़कर एचआरए बना लेने के बाद काकोरी कांड, सांडर्स हत्याकांड, केंद्रीय असेंबली में बमकांड आदि के कारण क्रांतिकारियों की स्वीकार्यता बढ़ती जा रही थी। ऐसे में मार्च-अप्रैल 1930 में डाँडी मार्च के जरिए गांधी ने कांग्रेस को फिर से आजादी के आंदोलन के केंद्र में ला दिया।
1930 का दशक अंग्रेज़ी सरकार के लिए अत्याधिक कठिन उथल पुथल का दौर था। 1929-1939 वैश्विक मंदी का दौर था। औद्योगिक उत्पादन निम्नतम स्तर पर पहुंच गया था बेरोजगारी चरम पर थी। ऐसे में उपनिवेशों में विद्रोह तीव्र होने लगे थे। अंग्रेज़ी साम्राज्य के राजनीतिक-आर्थिक अंतर्विरोधों के समाधान के लिए इंग्लैंड में राजनीतिक पार्टियों ने आपसी मतभेदों को दरकिनार करते हुए राष्ट्रीय सरकार के गठन का निर्णय किया। सबसे बड़े उपनिवेश भारत में आजादी का आंदोलन उग्र हो चला था और उसके वामपंथी क्रांति की ओर मुड़ जाने का ख़तरा मँडरा रहा था।
भारत में जिम्मेदार सरकार के गठन के लिए नेहरू कमेटी की रिपोर्ट और साइमन कमेटी की रिपोर्ट के अनेकों सुझावों से अलग-अलग समूहों की असहमति को देखते हुए इंग्लैंड में गोल मेज़ कॉंफ़्रेंस का आयोजन किया गया।
असहयोग आंदोलन के चलते अधिकांश कांग्रेसी नेता जेलों में बंद थे इसलिए पहली गोल मेज़ कॉंफ़्रेंस में कांग्रेस का कोई प्रतिनिधि शामिल नहीं हुआ। गांधी-इरविन समझौते के बाद कांग्रेस की ओर से गांधी दूसरी गोल मेज़ कॉंफ़्रेंस में शामिल हुए। अंग्रेज़ी सम्राट की ओर से ब्रिटेन की तीनों मुख्य राजनीतिक पार्टियाँ शामिल हुईं, भारतीय रियासतों की ओर से अनेकों राजा शामिल हुए और ब्रिटिश इंडिया की ओर से अम्बेडकर, तेज़ बहादुर सप्रू और आगा खान शामिल हुए।
तीनों बड़े समूहों, कांग्रेस, मुस्लिम लीग तथा रियासतों के प्रतिनिधियों के बीच प्रांतों की स्वायत्तता तथा केंद्र सरकार के एकाधिकार को लेकर मौलिक अंतर्विरोध थे। तीन चरणों में आयोजित की गई तीनों कॉंफ्रेंसों में नये डोमीनियन तथा संविधान की रूपरेखा पर कोई सहमति नहीं बन पाई सिवाय इसके कि डोमीनियन का स्वरूप एकलस्वरूप न होकर संघठनात्मक होगा।
29 दिसंबर 1930 को अखिल भारतीय मुस्लिम लीग के 25वें सम्मेलन में, इलाहाबाद में अपने अध्यक्षीय भाषण में मुहम्मद इकबाल ने कहा था,
“इस्लाम ने उन बुनियादी भावनाओं और निष्ठाओं को सुसज्जित किया है जो धीरे-धीरे बिखरे हुए व्यक्तियों और समूहों को एकजुट करती हैं, और अंततः उन्हें एक अच्छी तरह से परिभाषित लोगों में बदल देती हैं, जिनके पास स्वयं की नैतिक चेतना होती है। वास्तव में यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि भारत शायद दुनिया में एकमात्र ऐसा देश है जहां इस्लाम ने जन-निर्माण शक्ति के रूप में अपना सर्वश्रेष्ठ काम किया है।”
“मनुष्य न तो अपनी जाति से, न अपने धर्म से, न नदियों के प्रवाह से, न पर्वत श्रृंखलाओं से गुलाम होता है। दिमाग से समझदार और ज़िन्दा दिल लोगों का एक बड़ा समूह, एक नैतिक चेतना बनाता है जिसे राष्ट्र कहा जाता है। ऐसा राष्ट्र बनाना संभव है, हालांकि इसमें लोगों को व्यावहारिक तौर पर नया रूप देने और उन्हें नए भावनात्मक अंत:करण से सुसज्जित करने की लंबी और कठिन प्रक्रिया शामिल है। यह भारत में एक सच्चाई हो सकती थी यदि कबीर की शिक्षा और अकबर की ईश्वरीय आस्था ने इस देश की जनता की कल्पना में घर कर लिया होता। हालाँकि, अनुभव से पता चलता है कि भारत में विभिन्न जाति इकाइयों और धार्मिक इकाइयों ने अपने-अपने घटक को एक बड़े समग्र में समाहित करने की कोई प्रवृत्ति नहीं दिखाई है। प्रत्येक समूह को अपने सामूहिक अस्तित्व से अत्यंत ईर्ष्या होती है। उस प्रकार की नैतिक चेतना का निर्माण, जो एक राष्ट्र का सार है, एक ऐसी कीमत की मांग करती है जिसे भारत के लोग चुकाने के लिए तैयार नहीं हैं। इसलिए, भारतीय राष्ट्र की एकता को नकार में नहीं, बल्कि कई लोगों के आपसी सद्भाव और सहयोग में खोजा जाना चाहिए।”
“शायद हम एक-दूसरे के इरादों पर संदेह करते हैं और अंदर ही अंदर एक-दूसरे पर हावी होने का लक्ष्य रखते हैं। शायद, आपसी सहयोग के उच्च हितों में, हम उस एकाधिकार को छोड़ने का जोखिम नहीं उठा पाते हैं जो परिस्थितियों ने हमारे हाथों में दे दिया है, और इस प्रकार हम अपने अहंकार को राष्ट्रवाद की आड़ में छिपाते हैं, बाहरी तौर पर बड़े दिल वाली देशभक्ति का, लेकिन अंदर से किसी जाति या जनजाति की तरह संकीर्ण सोच वाला। शायद हम यह मानने को तैयार नहीं हैं कि प्रत्येक समूह को अपनी सांस्कृतिक परंपराओं के अनुसार मुक्त विकास का अधिकार है। लेकिन हमारी असफलता का कारण चाहे जो भी हो, मैं अब भी आशान्वित महसूस करता हूं। ऐसा प्रतीत होता है कि घटनाएँ किसी प्रकार के आंतरिक सामंजस्य की ओर बढ़ रही हैं। और जहां तक मैं मुस्लिम मन को पढ़ने में सक्षम हूं, मुझे यह घोषित करने में कोई हिचकिचाहट नहीं है कि यदि यह सिद्धांत, कि भारतीय मुस्लिम अपने भारतीय घर में अपनी संस्कृति और परंपरा की तर्ज पर पूर्ण और स्वतंत्र विकास का हकदार है, को स्थायी सांप्रदायिक समझौते के आधार के रूप में मान्यता दी जाती है, तो वह भारत की स्वतंत्रता के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगाने के लिए तैयार होगा। नेहरू रिपोर्ट में भी केखांकित किया गया है ‘So also without the fullest cultural autonomy – and communalism in its better aspect is culture – it will be difficult to create a harmonious nation’."
“भारत विभिन्न नस्लों से संबंधित, विभिन्न भाषाएँ बोलने वाले और विभिन्न धर्मों को मानने वाले मानव समूहों का एक महाद्वीप है। उनका व्यवहार सामान्य नस्ल-चेतना से बिल्कुल भी निर्धारित नहीं होता है। यहां तक कि हिंदू भी एक सजातीय समूह नहीं हैं। सांप्रदायिक समूहों के तथ्य को पहचाने बिना यूरोपीय लोकतंत्र के सिद्धांत को भारत पर लागू नहीं किया जा सकता है। इसलिए, भारत के भीतर, मुस्लिम भारत के निर्माण की, मुस्लिम मांग पूरी तरह से उचित है।”
“मैं पंजाब, उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत, सिंध और बलूचिस्तान को एक राज्य में मिला हुआ देखना चाहूंगा। एक समेकित उत्तर-पश्चिम भारतीय मुस्लिम राज्य का गठन मुझे कम से कम उत्तर-पश्चिम भारत के मुसलमानों की अंतिम नियति प्रतीत होता है। यह प्रस्ताव नेहरू समिति के समक्ष रखा गया। उन्होंने इसे इस आधार पर अस्वीकार कर दिया कि, यदि इसे लागू किया गया, तो यह बहुत ही बोझिल स्थिति पैदा कर देगा।”
“मैं उन्हें स्पष्ट रूप से बता सकता हूं कि मुस्लिम मांग मुक्त विकास की वास्तविक इच्छा से प्रेरित है जो पूरे भारत में स्थायी सांप्रदायिक प्रभुत्व को सुरक्षित करने की दृष्टि से, राष्ट्रवादी हिंदू राजनेताओं द्वारा विचार की गई, एकात्मक सरकार के तहत व्यावहारिक रूप से असंभव है।
1932 में तृतीय गोलमेज सम्मेलन के प्रतिनिधियों को वितरित किया गया एक पैम्फलेट, "पाकिस्तान घोषणापत्र", चौधरी रहमत अली द्वारा लिखा गया था और 28 जनवरी 1933 को प्रकाशित हुआ था, जिसमें पहली बार पाकिस्तान शब्द ("इ" अक्षर के बिना) का प्रयोग किया गया था। इस पैम्फलेट की शुरुआत इस प्रसिद्ध वाक्य से हुई थी -
“भारत के इतिहास के इस पवित्र क्षण में, जब ब्रिटिश और भारतीय राजनेता उस भूमि के लिए एक संघीय संविधान की नींव रख रहे हैं, हम अपनी साझी विरासत के नाम पर, पाकस्तान,(PAKSTAN without I) जिनसे हमारा तात्पर्य भारत की पांच उत्तरी इकाइयों से है, अर्थात: पंजाब,(Punjab) उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत (Afghan Province), कश्मीर (Kashmir) सिंध (Sindh) और बलूचिस्तान (Baluchistan), में रहने वाले अपने तीस मिलियन मुस्लिम भाइयों की ओर से आपसे यह अपील करते हैं।”
“हमारा धर्म और संस्कृति, हमारा इतिहास और परंपरा, हमारी सामाजिक संहिता और आर्थिक व्यवस्था, उत्तराधिकार, उत्तराधिकार और विवाह के हमारे नियम, शेष भारत में रहने वाले अधिकांश लोगों के नियमों से मौलिक रूप से भिन्न हैं। वे आदर्श जो हमारे लोगों को सर्वोच्च बलिदान करने के लिए प्रेरित करते हैं, मूलतः उन आदर्शों से भिन्न हैं जो हिंदुओं को ऐसा करने के लिए प्रेरित करते हैं। ये अंतर केवल व्यापक, बुनियादी सिद्धांतों तक सीमित नहीं हैं। इससे कहीं अधिक। ये हमारे जीवन के सूक्ष्मतम विवरणों तक फैले हुए हैं। हम आपस में भोजन नहीं करते; हम आपस में विवाह नहीं करते। हमारे राष्ट्रीय रीति-रिवाज और कैलेंडर, यहाँ तक कि हमारा खान-पान और पहनावा भी अलग है।”
नेहरू समिति के सम्मुख पेश किये गये “मुस्लिम प्रोपोज़ल’ में संयुक्त निर्वाचन मंडल पर सहमति, मुहम्मद इकबाल के अध्यक्षीय भाषण और रहमतअली की अपील से स्पष्ट है कि मुस्लिम लीग देश का बंटवारा नहीं चाहती थी, वह केवल यह सुनिश्चित करना चाहती थी कि संघीय ढाँचे के अंदर मुस्लिम बहुल इलाक़ों को पूर्ण स्वायत्तता मिले ताकि मुसलमान भी अपनी सांस्कृतिक धरोहर को सुरक्षित रख कर राष्ट्र के चहुंमुखी विकास में अपना योगदान दे सकें।
गांधी पूना पैक्ट में जातीय आधार पर दलितों के लिए अलग निर्वाचन मंडल की मांग को सैद्धांतिक रूप से खारिज कर चुके थे पर मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचन मंडल पर उन्हें कोई ऐतराज़ नहीं था, परंतु कांग्रेस के अंदर मौजूद हिंदुवादी, मुसलमानों की किसी भी मांग पर सहमति को मुसलमानों के तुष्टीकरण के रूप में ही देखते थे और विरोध करते थे। नेहरू धर्मनिरपेक्ष संघीय ढांचे के अंदर ही मुसलमानों को विशेषाधिकार दिये जाने के पक्षधर थे। जिन्ना को आशंका थी कि एकात्मक शासन प्रणाली केअंतर्गत मुस्लिम बहुल क्षेत्रों के लिए अलग प्रांत न होने की स्थिति में, अल्पसंख्यक मुसलमानों की स्थिति बहुसंख्यक हिंदुओं के मुकाबले दोयम दर्जे की हो जायेगी। जैसे जैसे भारत की आजादी का संघर्ष अपनी तार्किक परिणति की ओर बढ़ रहा था वैसे वैसे ब्रिटिश बुर्जुआजी तथा भारतीय सामंतशाही गठजोड़ और, स्वदेशी छोटी बड़ी बुर्जुआजी के गठजोड़ के बीच का अंतर्विरोध तीव्र होता जा रहा था। और इसके साथ ही, स्वतंत्र राष्ट्र के गठन की अनिश्चित रूपरेखा के अंदर अपने भविष्य की सुरक्षा के प्रति आशंकित, हिंदुओं तथा मुसलमानों के बीच भरोसा ख़त्म होता जा रहा था तथा वैमनस्य बढ़ता जा रहा था जो जगह जगह होनेवाले सांप्रदायिक दंगों के रूप में अभिव्यक्त हो रहा था।
ऐसी स्थिति में, सभी वर्गों को कुछ न कुछ राहत देकर संतुष्ट करने की बाजीगरी के साथ, केंद्रीय नियंत्रण अपने पास रखते हुए, अंग्रेज़ी राज ने अगस्त 1935 में गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट, 1935 के द्वारा भारत को डोमिनियन घोषित कर दिया। कहने को तो डोमिनियन का स्वरूप संघीय था और कानून बनाने की शक्तियां प्रांतीय विधान सभाओं को दी गई थीं और विषय समवर्ती नहीं थे। पर कौन सा विषय प्रांतीय सभा के दायरे में होगा और कौन सा संघीय सभा के दायरे में होगा यह तय करने का अधिकार गवर्नर जनरल के पास रखा गया था। इसी एक्ट के अनुरूप फरवरी 1937 में 11 प्रांतों में हुए चुनावों में कांग्रेस ने 8 में जीत हासिल की। पर कांग्रेस पूरी स्वायत्तता के बिना सरकार बनाने के लिए तैयार नहीं।
कांग्रेस ने लगभग चार महीने तक मंत्रिमंडलों का गठन नहीं किया और ब्रिटिश सरकार से अपने विधायी मामलों में हस्तक्षेप न करने की मांग की। उनके बीच विचार-विमर्श हुआ और अंततः, ब्रिटिश सरकार भारत सरकार अधिनियम, 1935 (321 अनुच्छेद तथा 10 अनुसूची) में कोई औपचारिक संशोधन किए बिना ही सहमत हो गई। परिणामस्वरूप, जुलाई 1937 में कांग्रेस मंत्रिमंडलों का गठन तो हुआ, लेकिन मुसलमानों के प्रति कठोर नीति के साथ: हिंदी राष्ट्रभाषा बनी, कांग्रेस का झंडा राष्ट्रीय ध्वज बना और बंदे मातरम राष्ट्रगान बना। गोहत्या पर सख्त प्रतिबंध लगा दिया गया और स्कूलों में बंकिम चंद्र चटर्जी के उपन्यास से लिया गया बंदे मातरम गाना शुरू किया गया। नई मस्जिदों के निर्माण पर प्रतिबंध लगा दिया गया और नमाज़ अदा करते समय मुसलमानों को परेशान किया गया। ये सरकारें द्वितीय विश्वयुद्ध होने तक चलीं। वायसराय द्वारा, कांग्रेस से सलाह किये बिना, भारत के युद्ध में शामिल होने की घोषणा से नाराज़ होकर कांग्रेस सरकारों ने इस्तीफ़ा दे दिया।
जिन्ना ने लंदन के एक साप्ताहिक, “टाइम एंड टाइड” में 9 मार्च 1940 को छपे अपने लेख में जिन्ना ने लिखा -
“इंग्लैंड जैसे समरूप राष्ट्रों की अवधारणा पर आधारित लोकतांत्रिक व्यवस्थाएँ भारत जैसे विषम देशों पर निश्चित रूप से लागू नहीं होतीं, और यही साधारण तथ्य भारत की सभी संवैधानिक बुराइयों का मूल कारण है... इसलिए, यदि यह मान लिया जाए कि भारत में एक बड़ा और एक छोटा राष्ट्र है, तो इसका अर्थ यह है कि बहुमत के सिद्धांत पर आधारित संसदीय व्यवस्था का अर्थ अनिवार्य रूप से बड़े राष्ट्र का शासन होगा। अनुभव ने सिद्ध कर दिया है कि किसी भी राजनीतिक दल का आर्थिक और राजनीतिक कार्यक्रम चाहे जो भी हो, हिंदू, सामान्यतः, अपनी जाति के साथी को वोट देगा, और मुसलमान अपने सहधर्मी को।”
कांग्रेस शासित प्रदेशों के बारे में उन्होंने लिखा,
“भारत भर में मुसलमानों पर हमला शुरू कर दिया गया। पाँच मुस्लिम प्रांतों में मुस्लिम नेतृत्व वाले गठबंधन मंत्रिमंडलों को हराने की हर संभव कोशिश की गई...छह हिंदू प्रांतों में एक "कुल्तुरकम्फ" का उद्घाटन किया गया। कांग्रेस पार्टी के गीत बंदे मातरम को राष्ट्रगान, पार्टी ध्वज और वास्तविक राष्ट्रभाषा उर्दू को हिंदी से बदलने के प्रयास किए गए। हर जगह उत्पीड़न शुरू हो गया और शिकायतें इतनी ज़ोरदार तरीके से आने लगीं...कि वायसराय और गवर्नरों द्वारा उनकी रक्षा के लिए कभी कोई कदम उठाए जाने से निराश मुसलमान अपनी शिकायतों की जाँच के लिए एक शाही आयोग की माँग करने पर मजबूर हो गए।”
इसके अलावा, उन्होंने आगे कहा:
"क्या यह (ब्रिटिश लोगों की) इच्छा है कि भारत एक अधिनायकवादी हिंदू राज्य बन जाए...? ... और मुझे पूरा विश्वास है कि मुस्लिम भारत ऐसी स्थिति के आगे कभी नहीं झुकेगा और अपनी पूरी शक्ति से इसका विरोध करने के लिए मजबूर होगा।"
अपनी समापन टिप्पणी में उन्होंने लिखा:
"जबकि मुस्लिम लीग किसी भी ऐसे संघीय उद्देश्य का अटल विरोध करती है, जिसका परिणाम लोकतंत्र और संसदीय शासन प्रणाली की आड़ में बहुसंख्यक समुदाय के शासन में होना आवश्यक हो... निष्कर्ष के तौर पर, एक ऐसा संविधान विकसित किया जाना चाहिए जो यह स्वीकार करे कि भारत में दो राष्ट्र हैं और दोनों को अपनी साझी मातृभूमि के शासन में साझेदारी करनी चाहिए।”
मार्च 1940 को मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेशन में अपने अध्यक्षीय भाषण में मुहम्मद अली जिन्ना ने कहा था -
“देवियो और सज्जनो, हमने कभी नहीं सोचा था कि कांग्रेस हाईकमान ने कांग्रेस शासित प्रांतों में इस तरह से काम किया होगा। मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि वे कभी इतने नीचे गिर जाएँगे। कांग्रेस शासित प्रांतों में हमें मुसलमानों के साथ दुर्व्यवहार और अत्याचार का सामना करना पड़ा। जनवरी 1939 से लेकर युद्ध की घोषणा तक जब कांग्रेस ने सभी सरकारों से त्यागपत्र दे दिया, हमें कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा।”
“युद्ध की घोषणा से पहले, भारत के मुसलमानों के लिए सबसे बड़ा ख़तरा केंद्र सरकार में संघीय योजना के संभावित उद्घाटन से था। हम जानते हैं कि क्या-क्या षड्यंत्र चल रहे थे। लेकिन मुस्लिम लीग हर दिशा में उनका डटकर विरोध कर रही थी। हमें लगा कि हम भारत सरकार अधिनियम, 1935 में निहित केंद्रीय संघीय सरकार की ख़तरनाक योजना को कभी स्वीकार नहीं कर सकते।”
“अब, भविष्य के संविधान के संबंध में हमारी क्या स्थिति है? यह है कि जैसे ही परिस्थितियाँ अनुकूल हों, या ज़्यादा से ज़्यादा युद्ध के तुरंत बाद, भारत के भावी संविधान की पूरी समस्या की नए सिरे से जाँच की जानी चाहिए और 1935 के अधिनियम को हमेशा के लिए रद्द कर दिया जाना चाहिए। श्री गांधी ने कुछ दिन पहले जो कहा था, उस पर चर्चा करने से पहले, मैं कुछ अन्य कांग्रेसी नेताओं की घोषणाओं पर चर्चा करूँगा - जिनमें से प्रत्येक ने अलग-अलग स्वर में बात की है। मद्रास के पूर्व प्रधानमंत्री श्री राजगोपालाचार्य कहते हैं कि हिंदू-मुस्लिम एकता का एकमात्र उपाय संयुक्त निर्वाचन मंडल है।”
“दूसरी ओर, बाबू राजेंद्र प्रसाद ने कुछ दिन पहले ही कहा था, "अरे, मुसलमानों को और क्या चाहिए?" 20 मार्च, 1940 को श्री गांधी ने कहा था: "मेरे लिए हिंदू, मुसलमान, पारसी, हरिजन, सब एक जैसे हैं।" "ऐसी स्थिति में आप शायद पूछेंगे कि मैं लड़ाई की बात क्यों कर रहा हूँ? मैं ऐसा इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि यह संविधान सभा के लिए लड़ाई है।” ”
“वह अंग्रेजों से लड़ रहे हैं। लेकिन क्या मैं श्री गांधी और कांग्रेस को यह बताना चाहूँगा कि आप एक संविधान सभा के लिए लड़ रहे हैं, जिसके बारे में मुसलमान कहते हैं कि वे इसे स्वीकार नहीं कर सकते; जिसका अर्थ, मुसलमान कहते हैं, तीन बरक्स एक है; जिसके बारे में मुसलमान कहते हैं कि इस तरह गिनती करके वे कभी भी किसी ऐसे समझौते पर नहीं पहुँच पाएँगे जो दिलों से सच्चा समझौता हो, जो हमें दोस्तों की तरह काम करने में सक्षम बनाए; और इसलिए संविधान सभा का यह विचार ही, अन्य आपत्तियों के अलावा, आपत्तिजनक है।”
“क्यों नहीं आप एक हिंदू नेता के रूप में गर्व से अपने लोगों का प्रतिनिधित्व करते हुए आएँ, और मुझे मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करते हुए गर्व से आपसे मिलने दें? जहाँ तक कांग्रेस का सवाल है, मुझे बस इतना ही कहना है। हम नहीं चाहते कि ब्रिटिश सरकार मुसलमानों पर ऐसा संविधान थोपे जिसे वे स्वीकार न करें और जिससे वे सहमत न हों।”
“यह वही है जो एक बहुत ही चतुर राजनीतिज्ञ और एक कट्टर हिंदू महासभाई लाला लाजपत राय ने कहा था। “……एक और मुद्दा है जो मुझे हाल ही में बहुत परेशान कर रहा है और एक ऐसा मुद्दा जिस पर मैं चाहता हूं कि आप ध्यान से सोचें और वह है हिंदुस्तान-मुस्लिम एकता का प्रश्न। मैंने पिछले छह महीनों के दौरान अपना अधिकांश समय मुस्लिम इतिहास और मुस्लिम कानून के अध्ययन के लिए समर्पित किया है और मुझे लगता है कि यह न तो संभव है और न ही व्यावहारिक है।" "………. यद्यपि हम अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट हो सकते हैं, हम हिंदुस्तान पर ब्रिटिश तर्ज पर शासन करने के लिए ऐसा नहीं कर सकते। हम हिंदुस्तान पर लोकतांत्रिक तर्ज पर शासन करने के लिए ऐसा नहीं कर सकते।” ”
“हज़ारों वर्षों के घनिष्ठ संपर्क के बावजूद, वे राष्ट्रीयताएँ जो आज भी उतनी ही भिन्न हैं जितनी पहले थीं, उनसे कभी भी, उन्हें केवल एक लोकतांत्रिक संविधान के अधीन करके और ब्रिटिश संसदीय क़ानूनों के अप्राकृतिक और कृत्रिम तरीकों से उन्हें बलपूर्वक एक साथ रखकर एक राष्ट्र में परिवर्तित होने की उम्मीद नहीं की जा सकती। डेढ़ सौ वर्षों तक भारत की एकात्मक सरकार ने जो हासिल किया, वह एक केंद्रीय संघीय सरकार के लागू करने से हासिल नहीं हो सकता। यह अकल्पनीय है कि उसे, इस प्रकार गठित सरकार के सरकारी-आदेश या कानूनी-आदेश द्वारा, सशस्त्र बल के बिना, पूरे उपमहाद्वीप में विभिन्न राष्ट्रीयताओं द्वारा स्वेच्छा और निष्ठापूर्वक पालन करवाया सके।”
“यदि ब्रिटिश सरकार वास्तव में इस उपमहाद्वीप के लोगों की शांति और सुख सुनिश्चित करने के लिए गंभीर और निष्ठावान है, तो हम सभी के लिए एकमात्र रास्ता यही है कि भारत को "स्वायत्त राष्ट्रीय राज्यों" में विभाजित करके प्रमुख राष्ट्रों को अलग-अलग मातृभूमि प्रदान की जाए। इन राज्यों के एक-दूसरे के प्रति शत्रुतापूर्ण होने का कोई कारण नहीं है। दूसरी ओर, प्रतिद्वंद्विता, और सामाजिक व्यवस्था पर प्रभुत्व स्थापित करने तथा देश के शासन में दूसरे पर राजनीतिक प्रभुत्व स्थापित करने की एक राष्ट्र की स्वाभाविक इच्छा और प्रयास, समाप्त हो जाएँगे। इससे उनके बीच अंतर्राष्ट्रीय समझौतों के माध्यम से स्वाभाविक सद्भावना बढ़ेगी और वे अपने पड़ोसियों के साथ पूर्ण सद्भाव से रह सकेंगे। इससे मुस्लिम भारत और हिंदू भारत के बीच पारस्परिक व्यवस्थाओं और समायोजनों द्वारा अल्पसंख्यकों के संबंध में मैत्रीपूर्ण समझौता और भी आसानी से हो सकेगा, जिससे मुस्लिम और विभिन्न अन्य अल्पसंख्यकों के अधिकारों और हितों की कहीं अधिक पर्याप्त और प्रभावी ढंग से रक्षा होगी।”
“यह समझना बेहद मुश्किल है कि हमारे हिंदू मित्र,इस्लाम और हिंदू धर्म के वास्तविक स्वरूप को क्यों नहीं समझ पाते। ये शब्द के सख्त अर्थ में धर्म नहीं हैं, बल्कि वास्तव में, अलग-अलग और विशिष्ट सामाजिक व्यवस्थाएँ हैं; और यह एक स्वप्न है कि हिंदू और मुसलमान कभी एक साझा राष्ट्रीयता विकसित कर सकें; और एक भारतीय राष्ट्र की यह भ्रांति सीमाओं से बहुत आगे निकल गई है और हमारी और भी परेशानियों का कारण बन रही है और अगर हम समय रहते अपनी धारणाओं को संशोधित नहीं करते हैं तो यह भारत को विनाश की ओर ले जाएगी। हिंदू और मुसलमान दो अलग-अलग धार्मिक दर्शन, सामाजिक रीति-रिवाजों और साहित्य से जुड़े हैं। वे न तो आपस में विवाह करते हैं और न ही एक साथ भोजन करते हैं, और वास्तव में वे दो अलग-अलग सभ्यताओं से संबंधित हैं जो मुख्यतः परस्पर विरोधी विचारों और अवधारणाओं पर आधारित हैं। जीवन और जीवन के प्रति उनके दृष्टिकोण भिन्न हैं। यह बिल्कुल स्पष्ट है कि हिंदू और मुसलमान इतिहास के विभिन्न स्रोतों से अपनी प्रेरणा प्राप्त करते हैं। उनके अलग-अलग महाकाव्य हैं, उनके नायक अलग-अलग हैं, और अलग-अलग प्रसंग हैं। अक्सर एक का नायक दूसरे का शत्रु होता है, और इसी तरह उनकी जीत और हार एक-दूसरे से मिलती-जुलती होती हैं। ऐसे दो राष्ट्रों, जिनमें से एक संख्या में अल्पसंख्यक हो और दूसरा बहुमत में हो, को एक ही राज्य के अंतर्गत जोड़ने से असंतोष बढ़ेगा और अंततः ऐसे राज्य की सरकार के लिए बनाई गई किसी भी संरचना का विनाश होगा।”
भारत की एकता और एक राष्ट्र, जिसका अस्तित्व नहीं है, की दलील के तहत यहां एक केंद्रीय सरकार की लाइन का पालन करने की कोशिश की जा रही है, जबकि हम जानते हैं कि पिछले बारह सौ वर्षों का इतिहास ऐसी एकता हासिल करने में विफल रहा है और इन युगों के दौरान, भारत हमेशा हिंदू भारत और मुस्लिम भारत में विभाजित रहा है। भारत की वर्तमान कृत्रिम एकता केवल ब्रिटिश विजय के समय की है, और इसे ब्रिटिश संगीन द्वारा बनाए रखा गया है, लेकिन ब्रिटिश शासन की समाप्ति, जो कि महामहिम सरकार की हालिया घोषणा में निहित है, ऐसे पूरे विघटन का अग्रदूत होगी, जो मुसलमानों के अधीन पिछले एक हजार वर्षों के दौरान हुई सबसे बुरी तबाही से भी बहुत अधिक बुरी होगी। निश्चित रूप से यह वह विरासत नहीं है जो ब्रिटेन अपने एक सौ पचास साल के शासन के बाद भारत को देगा, न ही हिंदू और मुस्लिम भारत ऐसी निश्चित तबाही का जोखिम उठाएगा।”
“मुस्लिम भारत ऐसे किसी भी संविधान को स्वीकार नहीं कर सकता जिसका परिणाम अनिवार्य रूप से हिंदू बहुमत वाली सरकार हो। अल्पसंख्यकों पर थोपी गई लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत हिंदुओं और मुसलमानों को एक साथ लाने का मतलब केवल हिंदू राज हो सकता है। जिस तरह के लोकतंत्र से कांग्रेस हाईकमान मोहित है, उसका मतलब इस्लाम में सबसे कीमती चीज का पूर्ण विनाश होगा। पिछले ढाई वर्षों के दौरान प्रांतीय संविधानों के कामकाज का हमें पर्याप्त अनुभव है, और ऐसी सरकार की किसी भी पुनरावृत्ति से गृहयुद्ध और निजी सेनाओं के गठन की ओर अग्रसर होना होगा, जैसा कि श्री गांधी ने सुक्कुर के हिंदुओं से सिफारिश की थी जब उन्होंने कहा था कि उन्हें हिंसक या अहिंसक रूप से, वार के बदले वार करके अपनी रक्षा करनी चाहिए, और यदि वे ऐसा नहीं कर सकते तो उन्हें पलायन करना होगा। हम स्पष्ट रूप से भारत की स्वतंत्रता के पक्ष में हैं। लेकिन यह पूरे भारत की स्वतंत्रता होनी चाहिए, न कि किसी एक वर्ग की स्वतंत्रता या इससे भी बदतर, कांग्रेस कॉकस की - और न ही मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों की गुलामी।”
20 मार्च 1927 के ‘मुस्लिम प्रपोज़ल’ में मुस्लिम लीग अलग निर्वाचन मंडल की मांग को छोड़ने के लिए तैयार थी बशर्ते कि उनकी बाकी माँगें मान ली जातीं, ख़ासकर सिंध को बंबई से अलग प्रांत के रूप में स्वीकार कर लिया जाता, पर हिंदू महासभा ने 28 अप्रैल 1928 को जबलपुर अधिवेशन में ‘मुस्लिम प्रपोज़ल’ को अस्वीकार कर दिया। जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस की मौजूदगी के बावजूद, हिंदू महासभा के तथा कांग्रेस के अंदर ही सामंती अधिनायकवादियों के विरोध के कारण इन माँगों को मोतीलाल नेहरू रिपोर्ट की सिफारिशों में शामिल नहीं किया गया था।
मुस्लिम प्रपोज़ल, मुहम्मद इकबाल के अध्यक्षीय भाषण तथा जिन्ना के अध्यक्षीय भाषण से स्पष्ट है कि मुस्लिम लीग भारत का विभाजन नहीं चाहती थी, वह भारतीय राष्ट्रराज्य के अंदर ही, मुस्लिम-राष्ट्रीयता के लिए, हिंदू-राष्ट्रीयता के अधिनायकत्व से स्वतंत्र, एक स्वायत्त क्षेत्र की मांग कर रही थी।
अंतर्राष्ट्रीय तथा भारत की परिस्थितियों को देखते हुए अंग्रेज़ी हुकूमत ने भारत को पूर्ण स्वराज्य देने का मन बना लिया था और 14 जून 1945 को इसकी घोषणा कर दी गई। वावेल के प्रस्ताव के अनुसार कार्यकारी परिषद में संतुलन रखने के लिए हिंदू, मुसलमान, दलित, सिख आदि के प्रतिनिधियों की संख्या तय की गई थी। कांग्रेस अपने पास हिंदू और मुसलमान दोनों प्रकार के प्रतिनिधियों को नामित करने का अधिकार रखना चाहती थी जबकि जिन्ना केवल मुस्लिम लीग के पास ही मुसलमान प्रतिनिधि नामित करने का अधिकार चाहते थे। वायसराय लॉर्ड वावेल ने 25 जून को शिमला में राजनीतिक पार्टियों के नेताओं के साथ बैठक की जिसमें गांधी और जिन्ना दोनों शामिल हुए थे। मुसलमानों के प्रतिनिधि के रूप में मुस्लिम लीग के एकाधिकार के प्रश्न पर सहमति न बन पाने के कारण, वावेल की योजना को छोड़ दिया गया।
जुलाई 1945 में हुए चुनावों में भारी जीत के बाद प्रधानमंत्री लार्ड एटली ने 20 फरवरी 1946 को ब्रिटिश पार्लियामेंट में वक्तव्य दिया था कि 30 जून 1948 तक भारत को संप्रभु राष्ट्र घोषित कर दिया जायेगा। नये राष्ट्र के निर्माण के लिए संविधान सभा की रूप रेखा और गठन की प्रक्रिया तय करने के लिए कैबिनेट मिशन के सदस्य, तय कर दिये गये जो 23 मार्च को भारत पहुंच गये थे।
अगले डेड़ महीने में कांग्रेस, मुस्लिम लीग तथा रियासतों के प्रतिनिधियों और अन्य महत्वपूर्ण व्यक्तियों के साथ विमर्श के बाद कैबिनेट मिशन ने अपना प्लान अंग्रेज़ी सरकार को सौंप दिया जिसकी घोषणा 16 मई 1946 को प्रधानमंत्री एटली ने ब्रिटिश संसद में कर दी।
प्लान के अनुसार कैबिनेट मिशन प्लान में, ब्रिटिश इंडिया के सभी प्रांतों तथा रियासतों को शामिल कर भारतीय संघ बनाने की संस्तुति की गई थी जिसमें विदेश, रक्षा तथा संचार व्यवस्थायें संघीय सरकार के अधिकार क्षेत्र में थीं। अन्य सभी मामलों में प्रांतों को स्वायत्तता प्रदान की जानी थी। प्रांतों को आपस में ग्रुप बनाने की आजादी भी दी जानी थी।
मिशन ने भारत के लिए तीन स्तरों वाली एक जटिल व्यवस्था प्रस्तावित की: प्रांत, प्रांतीय समूह और केंद्र। छह मुस्लिम प्रांतों (पंजाब, उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत, बलूचिस्तान, सिंध, बंगाल और असम) को एक समूह के रूप में एक साथ रखा जाएगा और वे विदेश मामलों, रक्षा और रक्षा के लिए आवश्यक संचार को छोड़कर अन्य सभी विषयों और मामलों से निपटेंगे, जिन्हें प्रांतों के दो समूहों - मुस्लिम प्रांतों (जिसे आगे पाकिस्तान समूह कहा जाएगा) और हिंदू प्रांतों - के संविधान-निर्माण निकाय एक साथ बैठकर निपटाएँगे।
मुस्लिम लीग की कार्यकारिणी ने 6 जून 1946 को कैबिनेट मिशन प्लान को स्वीकृति प्रदान कर दी थी।
10 जुलाई 1946 को प्रेस कॉंफ़्रेंस में नेहरू ने स्पष्ट कर दिया कि प्रांतों को तीन ग्रुपों में रखने के केबिनेट मिशन का प्लान कांग्रेस को स्वीकार्य नहीं है और न ही प्रांतों की पूर्ण स्वायत्तता। उनके अनुसार केंद्र के पास आपत्कालीन शक्तियाँ होना अनिवार्य है। अल्पसंख्यकों की सुरक्षा सुनिश्चित करना सरकार की ज़िम्मेदारी होगी। उनके अनुसार संविधान सभा पूरी तरह स्वायत्त होगी और कांग्रेस अंग्रेज़ी सरकार की किसी भी पूर्व शर्त को नहीं मानेगी।
29 जुलाई 1946 को मुस्लिम लीग की कार्यकारिणी ने भी अपनी स्वीकृति वापस ले ली।
प्लान के अनुरूप जुलाई 1946 में संविधान सभा का गठन कर दिया गया और सितंबर में अंतरिम सरकार भी बना दी गई थी।
जिन्ना जानते थे कि कांग्रेस के अंदर कट्टर हिंदू सामंती अधिनायकवादियों का बर्चस्व है और पूरी ईमानदारी और सच्चाई के बावजूद धर्मनिरपेक्ष बुर्जुआ जनवादी नेहरू और उनके साथी, एकात्मक राष्ट्र राज्य में मुसलमानों की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं कर पायेंगे। वे ब्रिटिश सरकार से गारंटी चाहते थे।
संविधान सभा की पहली बैठक 9 दिसंबर 1946 को आहूत की गई थी जिसकी अध्यक्षता सच्चिदानंद सिन्हा ने की थी। संविधान सभा में बहुसंख्यक आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाली भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस सैद्धांतिक रूप से धर्म के आधार पर प्रांतों के पुनर्गठन के खिलाफ थी, लेकिन बुर्जुआ जनवादी नेहरू संघीय ढांचे के अंतर्गत मुसलमानों की सुरक्षा की आशंका को लेकर मुस्लिम लीग की मांगों पर किसी हद तक समझौता करने के लिए तैयार थे, परंतु कांग्रेस के अंदर एक बड़ा हिस्सा कट्टर हिंदूवादियों का भी था जो अल्पसंख्यकों को दिये जानेवाली किसी भी रियायत को अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण के रूप में देखता था। संविधान सभा में कट्टर हिंदूवादी तथा रजवाड़ों के नामित सदस्यों का बहुमत था जो पटेल को अपने प्रतिनिधि के रूप में देखते थे
संविधान सभा की पहली बैठक 9 दिसंबर 1946 को आहूत की गई थी जिसकी अध्यक्षता सच्चिदानंद सिन्हा ने की थी। संविधान सभा में बहुसंख्यक आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाली भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस सैद्धांतिक रूप से धर्म के आधार पर प्रांतों के पुनर्गठन के खिलाफ थी, लेकिन बुर्जुआ जनवादी नेहरू संघीय ढांचे के अंतर्गत मुसलमानों की सुरक्षा की आशंका को लेकर मुस्लिम लीग की मांगों पर किसी हद तक समझौता करने के लिए तैयार थे और कैबिनेट मिशन की सिफारशों के अनुरूप प्रांतों के तीन ग्रुपों के फार्मूले पर सहमत थे, पर कांग्रेस के अंदर एक बड़ा हिस्सा कट्टर हिंदूवादियों का भी था जो अल्पसंख्यकों को दिये जानेवाली किसी भी रियायत को अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण के रूप में देखता था। संविधान सभा में कट्टर हिंदूवादी तथा रजवाड़ों के नामित सदस्यों का बहुमत था जो पटेल को अपने प्रतिनिधि के रूप में देखते थे।
मुस्लिम लीग की मुस्लिम बहुल क्षेत्रों के स्वायत्त प्रदेशों के रूप में पुनर्गठन की मांग को, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा सिरे से खारिज कर दिये जाने के कारण, मुस्लिम लीग ने संविधान सभा का बायकॉट कर दिया और संविधान सभा की बैठक अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दी गई। ब्रिटिश हुक्मरानों के सामने मुस्लिम लीग ने मांग रखी कि अगर मुस्लिम बहुल क्षेत्रों की स्वायत्त प्रांतों की उनकी मांग नहीं मानी जाती है तो वे चाहेंगे कि भारत का विभाजन कर मुस्लिम बहुल क्षेत्रों को स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में मान्यता दी जाय। राष्ट्रीय बुर्जुआजी अपनी मानसिकता के अनुरूप अपने हितों को ध्यान में रखते हुए, पूरे ब्रिटिश इंडिया साम्राज्य की एक स्वतंत्र राष्ट्र राज्य के रूप में कल्पना संजोये हुए थी, जब कि ब्रिटिश बुर्जुआजी तथा भारतीय सामंतशाही अपनी मानसिकता के अनुरूप, भारतीय उपमहाद्वीप का धार्मिक आधार पर विभाजन अपने हितों की पूर्ति के लिए अधिक उपयोगी मानते थे।
कांग्रेस में बुर्जुआ जनवाद का प्रतिनिधित्व करने वाला धड़ा जिसका प्रतिनिधित्व नेहरू करते थे, मुस्लिम लीग की धार्मिक आधार पर स्वायत्त प्रदेशों की मांग को छोड़कर, अल्पसंख्यकों के लिए अन्य किसी भी प्रकार के आरक्षण की मांग पर खुले मन से बात करने के लिए तैयार था। यहाँ तक कि, उचित समझौते पर पहुँचने के लिए वे आजादी की घोषणा को भी फ़िलवक्त टालने के लिए तैयार थे। महात्मा गांधी एकला चलो रे की अपनी व्यक्तिवादी मानसिकता के कारण अपने आपको, सभी वर्गों के प्रतिनिधि के रूप में, पूरे उपमहाद्वीप के एकमात्र नेता के रूप में देखते थे, और इसकी वजह से वे हर हाल में बंटवारे के खिलाफ थे। यहाँ तक कि वे कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग के अन्य सभी दावों को नजरंदाज कर जिन्ना को अखंड भारत का प्रधानमंत्री बनाने के लिए भी तैयार थे क्योंकि वे समझते थे जिन्ना की महत्वाकांक्षा तुष्ट हो जायेगी तो हिंदू मुस्लिम वैमनस्य समय के साथ समाप्त हो जायेगा।
कांग्रेस के अंदर सामंतवाद का प्रतिनिधित्व करने वाला धड़ा जिसका प्रतिनिधित्व सरदार पटेल तथा राजेंद्र प्रसाद करते थे, स्वभाविक रूप से कट्टर हिंदूवादी था और वे अल्पसंख्यकों को दी जानेवाली किसी भी रियायत को तुष्टीकरण के रूप में ही देखते थे और किसी भी कीमत पर आजादी की घोषणा टालने के लिए तैयार नहीं थे। इसके लिए उन्हें हिंदुस्तान के धार्मिक आधार पर बंटवारे से भी परहेज़ नहीं था।
संविधान सभा का गतिरोध समाप्त होता नजर नहीं आ रहा था तथा हिंदू मुस्लिम दंगे और अधिक हिंसक होते जा रहे थे। लार्ड वावेल भारत के विभाजन के पक्षधर नहीं थे और आशान्वित थे कि समय के साथ दंगों पर क़ाबू पा लिया जायेगा। पर इंग्लैंड में बैठे हुक्मरानों को ग्रेट ब्रिटेन के आर्थिक दिवालियेपन का इल्म था। ब्रैटनवुड में, अंतर्राष्ट्रीय विनिमय की मुद्रा के निर्धारण की मीटिंग में पाउंड स्टर्लिंग, अमेरिकी डॉलर के साथ मुकाबले में हार चुका था। गृहयुद्ध के कगार पर पहुँच चुके उपमहाद्वीप में शांति बनाये रखना ग्रेट ब्रिटेन की सामर्थ्य के बाहर हो गया था। ब्रिटिश हुक्मरानों के लिए, उपमहाद्वीप को ब्रिटिश कॉमनवेल्थ के अंतर्गत रखते हुए, अपने हितों की रक्षा सुनिश्चित करने के लिए जरूरी हो गया था कि भारत को जल्दी से जल्दी दो राष्ट्रों में बांट कर स्वतंत्र कर दिया जाय। दो राष्ट्रों की योजना को कार्यान्वित करने के लिए कांग्रेस की सहमति जरूरी थी और इसके लिए, बंटवारे के लिए नेहरू को मनाना जरूरी था, जिसके लिए लॉर्ड वावेल उपयुक्त गवर्नर जनरल नहीं थे।
ब्रिटिश साम्राज्य के द्वारा 21 फरवरी 1947 को गवर्नरल-जनरल/वायसराय लॉर्ड वावेल की जगह लॉर्ड माउंटबेटन को गवर्नरल-जनरल/वायसराय नियुक्त किया गया। नये गवर्नर जनरल ने, प्रांतों के पुनर्गठन तथा संघीय ढाँचे के प्रारूप पर नेहरू तथा जिन्ना के बीच सहमति के लिए गंभीर प्रयास किये। पर मतभेद जिन्ना तथा नेहरू के बीच न होकर, मुस्लिम लीग तथा कांग्रेस के बीच थे। गांधी तथा नेहरू आजादी को कुछ समय तक टाल कर धार्मिक सौहार्द स्थापित करने के पक्षधर थे पर सरदार पटेल का आंकलन था कि वैमनस्य इतना बढ़ चुका था कि समझौते की कोई उम्मीद बाकी नहीं रही थी इस कारण यही बेहतर था कि बंटवारे की शर्त के साथ आजादी स्वीकार कर ली जाय। धार्मिक कट्टरवादियों द्वारा भड़काये जा रहे उन्माद के बीच तर्कबुद्धि की बलि चढ़ गई थी। धार्मिक जुनून के चलते हिंदुस्तान के बंटवारे की मांग ही समय की मांग बन गई थी। बढ़ती हिंदू-मुस्लिम वैमनस्यता तथा हिंसा के हवाले से नये वायसराय ने नेहरू को बंटवारे के लिए तैयार कर लिया और गांधी जी की हैसियत मूक दर्शक की रह गई। जून 1946 को गवर्नर जनरल माउंटबेटन ने ब्रिटिश सरकार से सिफ़ारिश की कि हालात को देखते हुए गृह युद्ध को रोक पाना अंग्रेज़ी सरकार के लिए असंभव होगा इसलिए हिंदुस्तान का बंटवारा कर दोनों राज्यों को जल्द से जल्द आजाद कर दिया जाय। लार्ड माउंटबेटन की सिफ़ारिश को मानते हुए अंग्रेज़ी सरकार ने, मई-जून 1948 की प्रस्तावित आजादी की तारीख़ को खिसका कर 15 अगस्त 1947 कर दिया और 18 जुलाई 1947 को ब्रिटिश पार्लियामेंट ने हिंदुस्तान पाकिस्तान का बंटवारा स्वीकार करते हुए इंडियन इंडिपेंडेंस एक्ट 1947 पारित कर दिया।
भारत तथा पाकिस्तान को, स्वतंत्र-उपनिवेश (Dominion) के रूप में आजादी, ब्रिटिश पार्लियामेंट द्वारा पारित क़ानून इंडियन इंडिपेंडेंस एक्ट 1947 के अंतर्गत प्रदान की गई थी। जिस भौगोलिक क्षेत्र पर यह क़ानून लागू होता था वह केवल ब्रिटिश इंडिया के अधीन गवर्नर जनरल के प्रदेशों तक सीमित था। शासकों के साथ की गई पुरानी संधियों का आदर करते हुए, इस क्षेत्र के बाहर 584 राज्यों को आत्म निर्णय के अधिकार के साथ आजाद घोषित कर दिया गया था। आत्मनिर्णय के अधिकार में, भारत में विलय, पाकिस्तान में विलय या स्वतंत्र रहना, तीनों शामिल थे। बर्तानिया की सरकार ने स्पष्ट कर दिया था कि 15 अगस्त 1947 के बाद ब्रिटिश फ़ौजें रियासतों को कोई सुरक्षा प्रदान नहीं करेंगी।
भारतीय राष्ट्रीय कॉंग्रेस द्वारा चलाया जा रहा आजादी का आंदोलन ब्रिटिश इंडिया की सीमाओं के अंदर ही चलाया जा रहा था।
राज्यों के शासकों की, विलय की शर्तों पर निर्णय के लिए समय की कमी की दलील को मानते हुए, ब्रिटिश-भारतीय शासन ने विलय पत्र के साथ 3 जून 1947 को यथास्थिति क़रार पत्र का प्रारूप भी तैयार कर लिया था जिसे शासकों के समूह को 25 जुलाई 1947 को दिया गया था तथा जिसे शासकों द्वारा 31 जुलाई 1947 को स्वीकार कर लिया गया था। पंडित नेहरू ने शर्त रखी थी कि यथास्थिति का क़रार उन्हीं राज्यों के साथ किया जायेगा जो विलय के लिए तैयार होंगे। दो सप्ताह के अंदर ही 15 अगस्त 1947 की समय सीमा के पहले ही, भारतीय भौगोलिक सीमा के अंदर आने वाले सभी राज्यों, जम्मू-कश्मीर, जूनागढ़ तथा हैदराबाद को छोड़कर, सभी ने विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दिये थे। केवल हैदराबाद को दो महीने का अतिरिक्त समय दिया गया था। जूनागढ़ तथा उसकी अधीनस्थ रियासतों ने पाकिस्तान के साथ यथास्थिति क़रार पत्र तथा विलय पत्र पर 15 अगस्त 1947 को हस्ताक्षर कर दिये थे। राजा हरीसिंह जम्मू-कश्मीर के स्वायत्त स्वतंत्र राज्य का शासक बनने का सपना संजोये हुए था और उसने ब्रिटिश फ़ौजों का संरक्षण जारी रखने के लिए 12 अगस्त 1947 को भारत तथा पाकिस्तान को स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट साइन कर के भेजा था जिसे पाकिस्तान ने 15 अगस्त 1947 को स्वीकार कर लिया था पर भारत ने इनकार कर दिया था।
15 अगस्त 1947 की आजादी की तारीख़ से, संविधान लागू होने की तारीख 26 जनवरी 1950 तक भारत का शासन गवर्नर-जनरल/वायसराय की कार्यकारिणी की समिति के अधीन ही रहा। 15 अगस्त 1947 से 21 जून 1948 तक गवर्नर-जनरल थे अंग्रेज़ लॉर्ड माउंटबेटन तथा 21 जून 1948 को ब्रिटेन के महाराजा ने भारतीय सी. राजगोपालाचारी को गवर्नर-जनरल नियुक्त कर दिया था जो 26 जनवरी 1950 तक अपने पद पर बने रहे। शासन व्यवस्था गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 के अनुसार ही थी।
दोनों नये राष्ट्रों की अपनी अपनी सेनाओं के गठन होने तक, ब्रिटिश इंडियन आर्मी को ही दो हिस्सों में बांट कर भारत तथा पाकिस्तान को आवंटित कर दिया गया था। ब्रिटिश इंडियन आर्मी के सुप्रीम कमांडर फ़ील्ड मार्शल क्लॉड ऑचिनलेक को हिंदुस्तानी फ़ौज के कमांडर इन चीफ़ का दर्जा प्रदान किया गया था तथा ब्रिटिश इंडियन आर्मी की उत्तरी कमान के कमांडर ले. जनरल फ़्रेंकलिन मेसरवी को पाकिस्तानी फ़ौज के कमांडर इन चीफ़ का दर्जा प्रदान किया गया था। 26 जनवरी 1950 के बाद शासन व्यवस्था भारतीय संविधान के अंतर्गत आने के बाद ही सही मायने में भारत ने उपनिवेश के स्थान पर संप्रभु राष्ट्र का दर्जा प्राप्त किया था तथा स्वतंत्रता हासिल की थी
इस प्रकार भारतीय उपनिवेश के स्वतंत्रता संग्राम की परिणति, बंटवारे की त्रासदी के साथ दो राष्ट्रराज्यों के जन्म के रूप में हुई जिसमें दोनों ओर के लोग बंटवारे का दंश आज भी झेल रहे हैं।
इस कालखंड का इतिहास क्या होता अगर 1925 में गठित की गई भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने नव-जनवाद की अवधारणा को समझा होता, इस प्रश्न पर विमर्श का क्या कोई औचित्य होगा?
सुरेश श्रीवास्तव
12 अगस्त, 2025
(अप्रकाशित ‘कश्मीर फाइल्स के नजरंदाज सफे’ के कुछ अंश)
Subscribe to:
Posts (Atom)