Saturday, 6 January 2024

2024 के चुनाव में, नरेंद्र मोदी की गारंटी, राहुल गांधी का इंडिया गठबंधन, और मार्क्सवादियों के कार्यभार।

2024 के चुनाव में, नरेंद्र मोदी की गारंटी, राहुल गांधी का इंडिया गठबंधन, और मार्क्सवादियों के कार्यभार। मार्क्सवादी कौन है, मार्क्सवादी वह नहीं है जो मार्क्स को उद्धृत कर सके, मार्क्सवादी वह है जो मार्क्स की तरह सोच सके। जो अपने आप को मार्क्सवादी कहलाना पसंद नहीं करते हैं पर अपने जीवन के हर आयाम की पड़ताल में वैज्ञानिक मानसिकता के साथ सोचते हैं तथा व्यवहार करते हैं, वे भी मार्क्सवादी ही हैं। अनेकों आत्मघोषित मार्क्सवादी, जिस हद तक वे मार्क्सवाद तथा समाजवाद को स्टालिन तथा माओ के संदर्भ - समर्थन अथवा विरोध - से परिभाषित करते हैं, उस हद तक इस लेखक की नजर में वे मार्क्सवादी नहीं हैं और यह लेख उनके मुख़ातिब नहीं है। मार्क्स ने समझाया था, ‘समय के साथ प्रकृति विज्ञान अपने में मानव विज्ञान को समाविष्ट कर लेगा, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार मानव विज्ञान अपने में प्रकृति विज्ञान को समाविष्ट कर लेगा, और फिर तब एक ही विज्ञान होगा’, और वह विज्ञान ही मार्क्सवाद है। मार्क्स का कहना था कि दार्शनिकों ने विश्व की केवल व्याख्या की है, अनेकों प्रकार से; सवाल है उसे बदलने का। यह कहने की जरूरत नहीं कि जनवादी गणतंत्र राज्य का सर्वोच्च रूप है जिसके अंतर्गत ही सर्वहारा वर्ग तथा बुर्जुआ वर्ग के बीच का अंतिम निर्णायक युद्ध लड़ा जा सकता है क्योंकि जनवादी गणतंत्र आधिकारिक रूप से संपत्ति की असमानताओं को स्वीकार नहीं करता है, और अंतत: संपन्न वर्ग सीधे सार्विक मताधिकार के आधार पर शासन करता है। सर्वहारा वर्ग, जब तक अपने आप को स्वतंत्र करने के लिए परिपक्व नहीं हो जाता है, तब तक उसका बहुमत मौजूदा सामाजिक व्यवस्था को ही एकमात्र संभव विकल्प समझता रहेगा और पूँजीपतियों के प्रतिनिधियों को ही चुनता रहेगा। जनवादी गणतंत्र की संवैधानिक संस्थाओं द्वारा किसी भी भेदभाव के बिना कानूनी प्रक्रियाओं का पालन करना कामगारों की परिपक्वता का द्योतक है, और जनवाद को सुदृढ़ करना सर्वहारा नेतृत्व का दायित्व है। जाहिर है आज जब राजनीतिक संघर्ष अधिनायकवादी और जनवादी ताकतों के बीच है, तो जरूरत है जनवादी ताकतों के साथ खड़े होने की। हर वह चीज जो लोगों को चलाती है, उनके मस्तिष्क से गुजरनी चाहिए, पर वह मस्तिष्क के अंदर क्या रूप लेगी ये बहुत हद तक परिस्थितियों पर निर्भर करेगा, परिस्थितियाँ मस्तिष्क के अंदर और बाहर दोनों। यह बात जितना व्यक्तियों के ऊपर लागू होती है उतनी ही वह व्यक्तियों के समूहों पर भी लागू होती है। मौजूदा परिस्थिति में मार्क्सवादियों का दायित्व है कि वे राजनीतिक आर्थिक परिस्थितियों के ठीक-ठीक विश्लेषण के साथ कामगारों की मानसिकता की सही-सही समझ हासिल करें और अधिनायकवादी और जनवादी ताकतों के बीच चल रहे संघर्ष में, जनवादी ताकतों का प्रतिनिधित्व करने वालों के साथ एकजुट हों तथा कामगारों को, मतदाता के रूप में उनकी अपनी भूमिका से अवगत करायें। महान मूल विचार, कि संसार को तैयार चीज़ों के समुच्चय के रूप में नहीं समझा जाना चाहिए, बल्कि प्रक्रियाओं के समुच्चय के रूप में समझा जाना चाहिए, जिसमें प्रतीत होनेवाली अनिश्चितता तथा अस्थाई अवनति के बावजूद एक प्रगतिशील विकास ही अंतत: प्रभावी होता है, आमचेतना में इतनी अच्छी तरह घर कर चुका है कि सर्वव्यापी नियम के रूप में उसका विरोध यदा कदा ही होता हो। पर इस मूलभूत विचार की शब्दों में स्वीकृति एक बात है, और यथार्थ के धरातल पर, हर किसी आयाम की पड़ताल में उसको व्यापक रूप में लागू करना बिल्कुल ही अलग बात है। विज्ञान और तकनीकी के द्वंद्वात्मक संबंध से अठारहवीं सदी में हुई औद्योगिक क्रांति के बाद अब हम उस बिंदु पर पहुंच गए हैं जहां हम न केवल प्रकृति के विशेष क्षेत्रों में प्रक्रियाओं के बीच अंतर्संबंध प्रदर्शित कर सकते हैं, बल्कि इन विशेष क्षेत्रों के बीच परस्पर संबंध को भी प्रदर्शित कर सकते हैं। पूर्व में इस व्यापक दृष्टिकोण को प्रस्तुत करना तथाकथित प्राकृतिक दर्शन का कार्य था। आज जब इस अंतर्संबंध का द्वंद्वात्मक चरित्र प्रकृति वैज्ञानिकों के आध्यात्मिक रूप से प्रशिक्षित दिमागों में उनकी इच्छा के विरुद्ध भी, खुद को स्वीकार्य बना रहा है, तो पारंपरिक दर्शन का अंत हो गया है। इसे पुनर्जीवित करने का हर प्रयास न केवल अतिशयोक्तिपूर्ण होगा, बल्कि एक प्रतिगामी कदम भी होगा। मानव समाज की संरचना अमूर्त और अत्याधिक क्लिष्ट है, जिसका मूल आधार मनुष्यों के राजनीतिक तथा आर्थिक कार्यकलाप और उनके अंतर्संबंध हैं। मानव समूहों की उत्पादन-उपभोग प्रक्रिया के दौरान विकसित होने वाली उत्पादक शक्तियों तथा उत्पादन संबंधों और उनके आधार पर विकसित होने वाले व्यक्तिगत तथा सामूहिक चेतना के अंतर्संबंधों की वस्तुपरक पड़ताल की वैज्ञानिक पद्धति ही राजनीतिक-अर्थशास्त्र है, और पृथ्वी के अलग अलग भागों में अलग अलग कालखंडों में विकसित होने वाली सभ्यताओं और राष्ट्रीयताओं की विकास प्रक्रिया की इसी पद्धति के आधार पर की जाने वाली व्यख्या ही ऐतिहासिक भौतिकवाद है। ऐतिहासिक भौतिकवाद की सही समझ के आधार पर उत्पादक शक्तियों के विकास तथा उत्पादन संबंधों में सजग हस्तक्षेप करना ही वैज्ञानिक समाजवाद है। इच्छानुसार तथ्यों और ऑंकड़ों को जुटा कर कुछ भी सिद्ध किया जा सकता है पर अज्ञात वास्तविक अंतर्संबंधों की मार्क्सवादी व्याख्या के स्थान पर आदर्श काल्पनिक अंतर्संबंधों को रखकर, अप्रमाणित तथ्यों को मन की कल्पनाओं से जुटा कर और वास्तविक रिक्तियों को केवल कल्पना में पाट कर अंतर्संबंधों की व्याख्या करना न केवल अतिशयोक्तिपूर्ण होगा, बल्कि एक प्रतिगामी कदम भी होगा। बुर्जुआ जनवादियों द्वारा, उत्पादन संबंधों को बदले बिना, सकल उत्पाद में बढ़ोतरी के साथ, स्वत: ही कामगारों के जीवन स्तर में सुधार तथा सामाजिक संबंधों में बदलाव की आकांक्षा करना और आश्वासनों तथा वादों के द्वारा कामगारों की चेतना को प्रभावित करने के प्रयास करना ही शेखचिल्ली समाजवाद है। वैज्ञानिक समाजवाद और शेखचिल्ली समाजवाद में यही अंतर है। उच्चतम अवस्था में पहुंच चुकी पूँजीवादी अर्थव्यवस्थाओं और पारंपरिक सामंतवादी उत्पादन संबंधों के अंतर्विरोध की परिणति, प्रथम विश्वयुद्ध की उथल पुथल और उसके बाद हुई अधिनायकवादी राजनीतिक व्यवस्थाओं के बुर्जुआ जनवादी राजनीतिक व्यवस्थाओं द्वारा विस्थापन के रूप में हुई। पूंजीवादी विकास के साथ ही विकसित हुई सर्वहारा चेतना भी अब, सामन्तवाद और पूँजीवाद के साथ तीसरी शक्ति के रूप में वर्ग संघर्ष के मैदान में आ गई थी जिसकी परिणति द्वितीय विश्वयुद्ध और नव-जनवाद के उदय में हुई। अब वैश्विक चेतना सर्वव्यापी हो गई हैू और वर्ग संघर्ष भी विश्वव्यापी हो गया है। वर्ग संघर्ष के आर्थिक दायरे में तीनों उत्पादक शक्तियाँ, सामंतवादी, पूँजीवादी और सर्वहारा संघर्षरत हो गई हैं और राजनीतिक दायरे में अधिनायकवादी, जनवादी और समाजवादी शक्तियाँ। चेतना के वैश्विक चरित्र तथा भारतीय उपमहाद्वीप के अंतर्गत आर्थिक तथा सामाजिक विविधताओं के कारण न तो उत्पादक शक्तियों तथा उत्पादन संबंधों का द्वंद्वात्मक संबंध उतना सीधा सपाट रह गया है और न ही उनके आधार पर विकसित होने वाली राजनीतिक चेतना। मार्क्स ने समझाया था कि हर वर्ग अपने जीवन के भौतिक आधार पर विचारों का तिलस्म खड़ा कर लेता है जो उसके भौतिक आधार से पूरी तरह असंबद्ध नजर आता है। ‘राजनीति में लोग हमेशा ही छलावे तथा ग़लतफ़हमी के शिकार रहे हैं, अज्ञानी होने के कारण, और होते रहेंगे, जब तक कि वे सभी नैतिक, धार्मिक तथा सामाजिक वक्तव्यों, घोषणाओं तथा वायदों के पीछे एक या दूसरे वर्ग के हितों की पड़ताल करना नहीं सीख लेते हैं।’ और केवल मार्क्सवाद ही सही पड़ताल करने की क्षमता प्रदान करता है क्योंकि वह पूर्वाग्रहों को बेनकाब करने के लिए चीजों को मूल से पकड़ना सिखाता है। द्वंद्वात्मक- भौतिकवाद प्रकृति का मूलभूत शाश्वत सर्वशक्तिमान नियम है जो प्रकृति में होनेवाली सभी प्रक्रियाओं को परिभाषित और नियंत्रित करता है। मार्क्सवाद का मूल या अंतर्वस्तु, प्रकृति का मूलभूत नियम द्वंद्वात्मक- भौतिकवाद ही है और इसीलिए मार्क्सवाद सर्वशक्तिमान, शाश्वत है। ऐतिहासिक-भौतिकवाद के नियमों के अनुरूप इंग्लैंड में पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था के विकास के साथ ही बुर्जुआ जनवादी राजनीतिक अवधारणा का विकास होता रहा था, पर संपत्ति के निजी स्वामित्व की अवधारणा, बदलते स्वरूप के साथ मूल रूप से अपरिवर्तनीय ही रही। पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था द्वारा सामंतवादी उत्पादन व्यवस्था के प्रतिस्थापन के साथ ही समाजवाद की अवधारणा भी अस्तित्व में आ गई थी। पर वह शेखचिल्ली समाजवाद था क्योंकि उसके पास यह समझ नहीं थी कि संपत्ति के निजी स्वामित्व की अवधारणा में बदलाव के बिना सामंतवादी अथवा पूँजीवादी उत्पादन उत्पादन संबंधों तथा उनसे उपजने वाली चेतना में बदलाव की उम्मीद करना ही शेखचिल्ली सपना है। अस्तित्व तथा चेतना के द्वंद्वात्मक संबंध की सही समझ से लैस, वैज्ञानिक समाजवाद ही सामंतवादी और पूँजीवादी उत्पादक शक्तियों के विकास को समजवाद की ओर मोड़ने में सक्षम है। मार्क्सवाद के जन्म के शुरुआती दौर में, मार्क्सवाद पर हमला बाहर से था और अपनी मौजूदगी की पहली अर्ध सदी (1840 से लेकर) मार्क्सवाद ने, आधारभूत रूप से अपने विरोधी सिद्धांतों से लड़ने में गुज़ारी। नब्बे के दशक तक मोटे तौर पर जीत मुकम्मल हो चुकी थी। और मार्क्सवाद के अस्तित्व की दूसरी अर्धशताब्दी (नब्बे के दशक) की शुरुआत हुई, स्वयं मार्क्सवाद के अंदर मौजूद, मार्क्सवाद विरोधी रुझान के साथ संघर्ष से। इस रुझान का नामकरण किया गया एक समय के धुर मार्क्सवादी बर्नस्टाइन के नाम पर, जिसने मार्क्सवाद में बदलाव - मार्क्सवाद में संशोधन - के मकसद से सर्वाधिक कारगर धारणा, संशोधनवाद को आगे बढ़ाने तथा सबसे ज्यादा हाय-तौबा करने में पहल की। 1848 में भारतीय उपमहाद्वीप पर ईस्ट इंडिया कंपनी के एकछत्र शासन के बाद अगले पचास साल में उपमहाद्वीप में राजनीतिक और आर्थिक विकास अंग्रेजी साम्राज्य के व्यापारिक तथा क्षेत्रीय शासक वर्ग के सामंती हितों के अनुरूप हुआ। जो क्षेत्र कंपनी के आधीन था उसमें उत्पादक शक्तियों का विकास इंग्लैंड की पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था की अनुषंगी शक्तियों के अनुरूप हुआ। इसमें प्राकृतिक संसाधनों के दोहन तथा परिवहन संबधित उत्पादक शक्तियाँ ही विकसित हुईं। स्थानीय रियासतों के आधीन अंदरूनी क्षेत्र में उत्पादक शक्तियाँ पारंपरिक सामंतवादी ही रहीं और उनकी सामाजिक राजनीतिक चेतना में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। बीसवीं सदी के शुरू से ही भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन ने अपनी गति पकड़ ली थी पर दिशा का निर्धारण दूसरे दशक की समाप्ति तक हो पाया। मध्यवर्ग की राजनीतिक चेतना, वैश्विक चेतना का हिस्सा बन गई थी। 1909 के इंडियन काउंसिल एक्ट जिसे मोर्ले-मिंटो रिफॉर्म के नाम से भी जाना जाता है, में चुने हुए प्रतिनिधियों को शामिल किया गया था जिसमें धार्मिक आधार पर मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र का प्रावधान किया गया था, पर प्रतिनिधियों को कानून बनाने का अधिकार नहीं था। बीसवीं सदी के शुरू में ही, रूस के वामपंथी आंदोलन में व्याप्त संशोधनवाद से लड़ते हुए लेनिन ने समझाया था, ‘रूसी कम्युनिस्टों का मसला स्पष्ट रूप से यूरोपीय आलम दर्शाता है। ….. जो हमारे आंदोलन की वास्तविक परिस्थिति से थोड़े भी परिचित हैं, मार्क्सवाद के व्यापक विस्तार के साथ-साथ सैद्धांतिक स्तर में आई गिरावट उनकी नजरों में आये बिना नहीं रह सकती है। काफी तादाद में लोग, सतही या पूरी तरह नदारद सैद्धांतिक प्रशिक्षण के साथ, आंदोलन के व्यावहारिक महत्व तथा सफलता के कारण उसमें शामिल हो गये हैं।’ उन्होंने समझाया था कि कम्युनिस्ट आंदोलन अपने सार रूप में एक अंतर्राष्ट्रीय आंदोलन है, और एंगेल्स की नसीहतों को दोहराते हुए उन्होंने कहा था कि इस आंदोलन के हित में नहीं है कि किसी एक देश के मजदूर अपने राष्ट्रीय आंदोलनों के आगे आगे चलें। उनका दायित्व है कि वे जनवादी गणतंत्र, जिसके अंतर्गत ही सर्वहारा वर्ग तथा बुर्जुआ वर्ग के बीच का अंतिम निर्णायक युद्ध लड़ा जा सकता है, को मज़बूत करने और लडाई के मैदान में सम्माननीय स्थिति हासिल करने की दिशा में काम करें। प्रथम विश्वयुद्ध तथा सोवियत क्रांति की सफलता ने भारत में राजनीतिक आजादी की लड़ाई और वर्गीय संघर्ष दोनों को ही तीव्रता प्रदान की। अंग्रेज़ों ने गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1919 जिसे मोंटेगू-चेम्सफोर्ड सुधारों के नाम से भी जाना जाता है, के जरिए जन आक्रोश को शांत करने का प्रयास किया। नये सुधारों में चुने हुए प्रतिनिधियों को कानून बनाने का अधिकार हासिल हो जाने के बाद वर्गीय महत्वाकांक्षाएँ भी तीव्र हो गईं। सोवियत क्रांति की सफलता के साथ समाजवादी चेतना के विस्तार के लिए जरूरी उत्पादक शक्तियों को भौतिक आधार हासिल हो जाने के बाद, विभिन्न राष्ट्र राज्यों में सत्ता के लिए संघर्ष में सामंतवादी चेतना और पूँजीवादी चेतना के साथ सर्वहारा चेतना भी मैदान में थी। मार्क्स ने अन्नानिकोव को लिखे अपने पत्र में निम्न मध्य वर्गीय चरित्र के ढुलमुलपन को रेखांकित करते हुए दर्शाया था कि निम्नमध्यवर्गीय एक ओर तो विपन्नों की पैरोकारी करता है तो दूसरी ओर संपन्नों की ताबेदारी, पर अपनी सामाजिक परस्थिति के कारण सभी सामाजिक क्रांतियों का अभिन्न अंग भी होता है। और बुर्जुआवर्ग के चरित्र पर टिप्पणी करते हुए माओ ने ‘नये जनवाद’ में समझाया है कि जब दुर्जेय दुश्मन से मुक़ाबला होता है, वे उसके खिलाफ मजदूरों तथा किसानों के साथ एकजुट होते हैं, लेकिन जब मजदूर तथा किसान जागृत हो जाते हैं तो वे पाला बदल कर मजदूर तथा किसानों के खिलाफ दुश्मन से मिल जाते हैं। यह एक आम नियम है जो बुर्जुजी पर सारी दुनिया में लागू होता है।’ वे आगे समझाते हैं कि ‘चीन में जनवादी गणतंत्र जिसे हम स्थापित करना चाहते हैं, वह सर्वहारा के नेतृत्व में सभी साम्राज्यवाद विरोधी तथा सामंतवाद विरोधी लोगों का सामूहिक अधिनायकवाद होगा अर्थात ‘नया जनवाद’। कामगारों की एकता को तोड़ने में धार्मिक और जातिवादी रूढ़ियॉं सबसे ज्यादा कारगर होती हैं इस कारण सामंतवादी और पूँजीवादी ताकतों ने हिंदू तथा मुस्लिम कट्टर धार्मिक संगठनों को खड़ा करने में सक्रिय भूमिका निभाई। दोनों वर्गों के धार्मिक उदारवादियों की मदद से कांग्रेस बुर्जुआ जनवाद के लिए आजादी की लड़ाई की बागडोर अपने हाथों में रखने में सफल रही। सोवियत क्रांति की सफलता से अभिभूत भारतीय निम्नमध्यवर्गीय युवा, अपनी संशोधनवादी समझ के कारण एंगेल्स तथा लेनिन की नसीहतों को नजरंदाज करते हुए और कामगारों को राजनीतिक रूप से वैज्ञानिक समाजवाद के बारे में शिक्षित किये बिना कम्युनिस्ट पार्टी का गठन कर बैठे और आजादी के आंदोलन में निर्णायक भूमिका गँवा बैठे। अपने जन्म से ही संशोधनवाद के दलदल में फँस गया भारतीय वामपंथी आंदोलन आज तक उस दलदल से नहीं निकल सका है। कामगारों की चेतना में वैज्ञानिक समाजवाद, आर्थिक संघर्षों के दौरान स्वत: नहीं आता है। उसे मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों द्वारा संघर्ष के बाहर से लाया जाता है, जिस प्रकार शेखचिल्ली समाजवाद लाया गया था। भारतीय निम्नमध्यवर्गीय बुद्धिजीजीवियों की शिक्षा दीक्षा अंग्रेज़ी बुर्जुआ परंपरा पर आधारित थी इस कारण भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में जिसे समाजवाद के नाम पर शामिल किया गया था वह वैज्ञानिक समाजवाद न हो कर शेखचिल्ली समाजवाद था और जिस सिद्धांत को मार्क्सवाद के नाम पर अपनाया गया था वह मार्क्सवाद न हो कर संशोधनवाद था। राजनीति के क्षेत्र में संशोधनवाद ने वास्तव में मार्क्सवाद के आधार को ही बदलने की कोशिश की है। ‘जो कोई भी संसदवाद तथा बुर्जुआ प्रजातंत्र के अनिवार्य आंतरिक अंतर्विरोधों, जिनके चलते मतभेदों के समाधान पहले के मुकाबले कहीं अधिक व्यापक हिंसा के कारण और अधिक उग्र होते हैं, को नहीं समझता है, वह व्यापक मजदूरवर्ग को ऐसे फ़ैसलों में विजयी अभियान के लिए तैयार करने के मकसद से संसदवाद के आधार पर कभी भी उसूल सम्मत प्रचार तथा आंदोलन नहीं चला सकता है। क्रांतिकारी सिद्धांत के बिना कोई क्रांतिकारी आंदोलन नहीं हो सकता है। इस समय तो हम केवल इतना कहना चाहते हैं कि हरावल लड़ाकू की भूमिका केवल ऐसा संगठन निभा सकता है जो अत्याधिक विकसित सिद्धांत से संचालित हो।’ कार्यभार का अर्थ है वांछित परिणाम हासिल करने के लिए पूर्वनियोजित सजग हस्तक्षेप, इस कारण कार्यभार निर्धारित करते समय उद्देश्य की स्पष्ट समझ और सामाजिक बदलाव की प्रक्रियाओं के नियमों, जो प्रक्रियाओं को नियंत्रित करते हैं, की पुख्ता समझ होना अनिवार्य पूर्व शर्त है। आगामी लोकसभा के चुनावों को तथा भारत की मौजूदा राजनीतिक आर्थिक व्यवस्था को देखते हुए मार्क्सवादियों के कार्यभार दो भागों में बाँटे जा सकते हैं। - फौरी कार्य भार है, भाजपा को सत्ता से बेदख़ल करने के लिए आगामी लोकसभा के चुनाव में इंडिया गठबंधन की ओर से सभी सीटों पर साझा उम्मीदवार सुनिश्चित करने के कांग्रेस के प्रयासों को, और सीटों के बंटवारे में राहुल गांधी को समर्थन दे कर कांग्रेस के आंतरिक अंतर्द्वंद्व में तथा भारतीय राजनीति के अंतर्द्वंद्व में बुर्जुआ जनवादी ताकतों को मज़बूती प्रदान करना। - दीर्घकालीन कार्यभार है, वामपंथी आंदोलन में व्याप्त संशोधनवाद की मूल अवधारणाओं को बेनकाब कर नई पीढ़ी को मार्क्सवाद की मूल अवधारणाओं, द्वंद्वात्मक-भौतिकवाद और ऐतिहासिक भौतिकवाद से परिचित कराना ताकि संशोधनवाद के दलदल में फंसे मजदूर संगठनों को उससे बाहर निकाला जा सके। फौरी कार्यभार - अत्याधिक पिछड़ी सामंतवादी से ले कर अत्याधुनिक पूंजीवादी, विविध चेतना बहुल भारत में, आजादी के तथा पुनर्गठन के बाद, मुख्य अंतर्विरोध यथास्थितिवादी पारंपरिक सामंतवादी व्यवस्था तथा प्रगतिशील आधुनिक पूंजीवादी व्यवस्था के बीच था पर देश के अनेकों भागों में किसानों और मजदूरों के बीच वामपंथी आंदोलनों की मौजूदगी के कारण शक्ति संतुलन औद्योगिक पूँजी तथा बुर्जुआ जनवाद के हक़ में था। इसीलिए कांग्रेस के अंदर तथा संविधान सभा के अंदर सामंतवादी सोच के बहुमत के बावजूद नेहरू संविधान को संघीय स्वरूप देने में और स्थानीय औद्योगिक पूँजी के विकास के लिए ज़मींदारी उन्मूलन करने तथा नियोजित औद्योगिक नीति लागू करने में कामयाब रहे। अगले पचास साल में कांग्रेस ने मध्यमार्गीय नीति अपनाते हुए देश के आर्थिक विकास और जनवाद को उस स्तर पर पहुँचा दिया जहाँ अंतर्राष्ट्रीय परिवेश के अनुरूप उदारीकरण की नीतियाँ लागू कर विदेशी पूँजी के लिए रास्ता खोला जा सकता था। पर संशोधनवादी समझ के कारण वामपंथी संगठन यह समझने में नाकाम थे कि भारतीय अर्थव्यवस्था का मुख्य अंतर्विरोध सामन्तवाद और पूँजीवाद के बीच है, न कि पूँजीवाद और समाजवाद के बीच। अपनी संशोधनवादी समझ के कारण वे उद्योगों में विदेशी निवेश का विरोध करते रहे और अप्रत्यक्ष रूप से वाणिज्यिक पूँजी निवेश और सामन्तवाद की मदद करते रहे। सामन्तवाद में विनिमय का आधार वाणिज्यिक पूँजी ही होती है और क्रोनी कैपिटल वाणिज्यिक पूँजी का ही विकसित रूप है। यूपीए-1 के दौर में वामपंथी संगठनों के समर्थन के कारण सोनिया गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पूँजीवादी उत्पादक शक्तियों को तथा बुर्जुआ जनवाद को मज़बूत करने वाली नीतियाँ बनाने में सक्षम थी। पर यूपीए-2 में वामपंथियों का समर्थन न होने के कारण कांग्रेस को सामंती अधिनायकवादी क्षेत्रीय दलों पर पूरी तरह निर्भर रहना पड़ा और कांग्रेस के अंदर और बाहर सामंती अधिनायकवादी शक्तियों का पलड़ा भारी हो गया। फलस्वरूप 2014 के चुनाव में, सामंतवादी अधिनायकवादी शक्तियों का प्रतिनिधित्व करने वाली भाजपा के नेतृत्व वाला एनडीए गठबंधन केंद्र में सत्तानशीन हो गया और भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था के विकास की दिशा भी उलटी हो गई। भारतीय राजनीतिक अर्थव्यवस्था को पुन: प्रगति की दिशा में मोड़ने के लिए आवश्यक है कि राजसत्ता को फिर से बुर्जुआ जनवादी ताकतों के नियंत्रण में लाया जाय। औद्योगीकरण के द्वारा उत्पादक शक्तियों के विकास के, तथा कमजोर और वंचित लोगों को राजनीतिक रूप से जागरूक कर जनवाद का आधार मज़बूत करने के बारे में राहुल गांधी की सोच स्पष्ट है। कांग्रेस के अंदर तथा बाहर बुर्जुआ जनवादी ताकतों की एकजुटता के लिए जरूरी है कि वामपंथी दल अपने को अग्रणी भूमिका में न रख कर पूरी मुस्तैदी के साथ राहुल गांधी के पीछे खड़े हों। इसके लिए सही वातावरण तैयार करने में मदद करना ही मार्क्सवादियों का फौरी कार्यभार है। दीर्घकालीन कार्यभार - उत्पादक शक्तियों के निरंतर विकास के समानांतर, उत्पादन संबंधों में राज्य के सजग हस्तक्षेप के जरिए निरंतर बदलाव करते जाना ही लोगों की सुरक्षा और ख़ुशहाली की गारंटी है और यही समाजवाद है। राजनीतिक अर्थव्यवस्था को समाजवाद की राह पर स्थापित करने और निरंतर समाजवाद की राह पर बनाये रखने के लिए आवश्यक है कि राजसत्ता पर नियंत्रण ऐसी पार्टी का हो जिसका गठन जनवादी केंद्रीयता के नियम पर आधारित हो और जो वैज्ञानिक समाजवाद के लिए प्रतिबद्ध हो। ऐसी पार्टी के गठन के लिए जरूरी है कि उसके सदस्यों को वैज्ञानिक दृष्टिकोण आधारित सिद्धांत मार्क्सवाद की पुख्ता समझ हो। इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए मार्क्सवादियों के दीर्घकालिक कार्यभार को दो भागों में बाँटा जा सकता है। एक आयाम तो है सामाजिक सरोकारों के प्रति सजग ऐसे बुद्धिजीवियों, जो किसी भी क्रांतिकारी परिवर्तन के लिए क्रांतिकारी आंदोलन और क्रांतिकारी सिद्धांत के महत्व को समझते हों, को खोज निकालना और उन्हें एकजुट करना, और उनके साथ मार्क्सवाद और संशोधनवाद के मूलभूत अंतर को समझना और समझाना। पुरानी पीढ़ी के जिन मार्क्सवादियों के कंधों पर नई पीढ़ी को मार्क्सवाद की सही समझ से लैस करने का दायित्व है, पहले उन्हें स्वयं को शिक्षित करना होगा ताकि वे पारंपरिक संशोधनवाद के दलदल से बाहर निकल सकें। ‘स्वयं शिक्षा देनेवाले को शिक्षित किया जाना अनिवार्य है।’ इसके लिए जरूरी है कि मार्क्सवाद के विभिन्न आयामों के ऊपर ऐसे मंचों पर विषय केंद्रित विचार विमर्श किया जाय जो किसी राजनीतिक आर्थिक आंदोलन की अग्रणी भूमिका में नहीं हैं। विचार विमर्श के कार्यक्रमों को एक सतत क्रांतिकारी आंदोलन की तरह चलाना जरूरी है। ‘इसलिए जब सवाल इतिहास की उन चालक शक्तियों की पड़ताल का है जो, सजग तौर पर या अनजाने - और वास्तव में अक्सर अनजाने ही - इतिहास में काम करने वाले लोगों के मंसूबों के पीछे निहित होती हैं और जो इतिहास के वास्तविक अंतिम चालक बलों का गठन करती हैं, तब फिर सवाल किसी एक व्यक्ति, कितना भी प्रख्यात क्यों न हो, के मनसूबों का इतना अधिक नहीं है जितना कि उन मनसूबों का है जो आमजन को, व्यापक जनसमुदाय के सभी वर्गों को, हर जनसमुदाय को कर्म के लिए प्रेरित करते हैं, वह भी, केवल क्षणभर के लिए नहीं, भूसे के ढेर में लगी आग की तरह जो जल्दी ही ठंडी पड़ जाती है, बल्कि एक दीर्घकालीन सतत कर्म के लिए जिसकी परिणति ऐतिहासिक परिवर्तन में होती है। उन चालक कारणों, जो कार्यरत जनता तथा उसके नेताओं - तथाकथित महान पुरुषों- के सजग मनसूबों के रूप में स्पष्ट या अस्पष्ट तौर पर, सीधे-सीधे या आदर्श, महिमामंडित रूप में नजर आते हैं, को सुनिश्चित करना ही एकमात्र रास्ता है जिसके जरिए हम उन नियमों की पहचान कर सकते हैं जो संपूर्ण इतिहास में भी और किसी विशिष्ट कालखंड में तथा किसी विशिष्ट दिककाल में भी चीज़ों को निर्धारित करते हैं। हर वह चीज जो लोगों को चलाती है, उनके मस्तिष्क से गुजरनी चाहिए, पर वह मस्तिष्क के अंदर क्या रूप लेगी ये बहुत हद तक परिस्थितियों पर निर्भर करेगा।’ दीर्घकालीन कार्यभार का अगर एक आयाम उन लोगों को एकजुट करना है जो सर्वहारा के हरावल दस्ते का काम करेंगे तो दूसरा आयाम है सर्वहारा की चेतना में वैज्ञानिक समाजवाद की समझ का विस्तार करना। संशोधनवादी, पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली की सामूहिक श्रमशक्ति को व्यक्तिगत श्रमशक्ति से गुणात्मक रूप से भिन्न नहीं मानता है और मानता है कि पूंजी और श्रम के औजारों पर नियंत्रण तथा बुर्जुआ सरकार के समर्थन से पूंजीपति मजदूर को उसके द्वारा व्यक्तिगत रूप से पैदा किये गये मूल्य से कम मजदूरी चुका कर अतिरिक्त मूल्य हड़प कर उसका शोषण करता है। वह मानता है कि राजसत्ता के हस्तक्षेप के द्वारा पैदा किये गये अतिरिक्त मूल्य का मजदूरों के बीच बंटवारा ही शोषण से मुक्ति दिलाने का रास्ता है और मजदूरों की आर्थिक लड़ाई में मजदूरों के साथ खड़े होकर वह मजदूरों का विश्वास हासिल कर लेगा और सत्ता पर क़ाबिज़ हो जायेगा। इसे ही वह समाजवाद मानता है। पर यह सोच कामगारों की चेतना में निजी स्वामित्व की अवधारणा को ही बल प्रदान करती है जो समाजवाद की मूल अवधारणा के बिल्कुल विपरीत है। यही कारण है कि संशोधनवादी कामगारों को अपने पीछे लामबंद कर पाने में असफल रहते हैं। ‘यह सिद्ध हो गया था कि संशोधनवादी आधुनिक लघु-उत्पादन के बारे में सुचारू रूप से सुनहरी तस्वीर दर्शाने में लगे हुए थे। छोटे स्तर के उत्पादन के मुकाबले बड़े स्तर के उत्पादन में तकनीकी तथा वाणिज्यिक उत्कृष्टता न केवल उद्योग में बल्कि कृषि में भी निर्विवाद तथ्यों के आधार पर सिद्ध हो चुकी है।’ ‘लघु उत्पादन अपने आप को, निरंतर गिरते पोषण स्तर के द्वारा, दीर्घ कालिक भुखमरी के द्वारा, लंबे होते कार्य दिवस के द्वारा तथा पशुधन की गुणवत्ता तथा देखभाल में ह्रास के द्वारा, बरक़रार रख पाता है’। असंगठित क्षेत्र के कामगार की तुलना में अपनी बेहतर मजदूरी तथा बेहतर जीवन स्तर को देखते हुए, संगठित क्षेत्र के कामगार संशोधनवादियों की इस दलील को स्वीकार नहीं कर पाते हैं कि उन्हें कम मजदूरी देकर पूँजीपति उनका शोषण कर रहे हैं। संशोधनवादियों के, शेखचिल्ली समाजवाद के बारे में घोषणाओं तथा आश्वासनों पर विश्वास कर, मजदूरवर्ग संपन्न वर्ग के प्रतिनिधियों को ही अपने प्रतिनिधि मान कर उन्हें चुनता रहता है। मजदूरवर्ग के बीच काल्पनिक समाजवाद तथा वैज्ञानिक समाजवाद के अंतर को स्पष्ट करना तथा समझाना कि उत्पादक शक्तियों को विकसित किये बिना न तो जनवाद को सुदृढ़ किया जा सकता है और न समाजवाद लाया जा सकता है, मार्क्सवादियों के दीर्घकालीन कार्यभार का दूसरा आयाम है। सुरेश श्रीवास्तव 6 जनवरी, 2024

Monday, 25 April 2022

मार्क्सवादियों के नाम अपील

मार्क्सवाद का सिद्धांत सर्वशक्तिमान है क्योंकि वह सत्य है। वह सर्वव्यापी तथा समदर्शी है। कम्युनिस्ट पार्टियों तथा अन्य वामपंथी संगठनों के साथ संबद्ध और, इन सबसे असंबद्ध, मार्क्सवादियों के नाम अपील ! प्रिय प्रबुद्ध साथियो, आप सब ने मार्क्सवाद को आत्मसात किया है और, आप मार्क्सवाद के महान शिक्षकों की नसीहतों से अपने अपने हिसाब से मार्गदर्शन लेकर अपने अपने कार्यभारों को तय करते रहे हैं। आज भारतीय राजनीति तथा अर्थव्यवस्था, आजादी के बाद के सबसे कठिन दौर से गुज़र रहीं हैं। इस बात की भी आशंका व्यक्त की जा रही है कि अगर समय रहते सार्थक हस्तक्षेप नहीं किया गया तो प्रतिगामी शक्तियां समाज को अतीत के अंधेरे गर्त में गर्क कर छोड़ेंगीं जहाँ से बाहर निकलने में आनेवाली पीढ़ियों को दशकों तक संघर्ष करना होगा। मार्क्सवाद के महान शिक्षकों के कुछ सबक हैं जिनकी रोशनी में आप सबसे मैं कुछ कहना चाहता हूँ। सबक नं 1. क्रांतिकारी सिद्धांत के बिना कोई क्रांतिकारी आंदोलन नहीं हो सकता है। सबक नं 2. सिद्धांत जनता के मन में घर कर लेने पर भौतिक शक्ति में परिवर्तित हो जाता है। सबक नं 3. मार्क्सवाद का सिद्धांत सर्वशक्तिमान है क्योंकि वह सत्य है। वह सर्वव्यापी तथा समदर्शी है और मानव को एक सर्वांगीण वैश्विक दृष्टिकोण प्रदान करता है। मार्क्सवाद का दार्शनिक आयाम भौतिकवाद है और विकास का सिद्धांत द्वंद्ववाद है। जिस प्रकार मानव का ज्ञान प्रकृति (यानि विकासरत पदार्थ), जिसका अस्तित्व उससे निरपेक्ष है, का प्रतिबिंब है, उसी प्रकार मानव का सामाजिक ज्ञान (यानि उसके अनेकों विचार तथा सिद्धांत - दार्शनिक, धार्मिक, राजनैतिक इत्यादि) समाज की आर्थिक प्रणाली को प्रतिबिंबित करता है। सबक नं 4. जिस प्रकार और सभी वैचारिक आयामों में, परंपराएँ यथास्थितिवादी शक्तियाँ मुहैय्या कराती हैं, उसी प्रकार धर्म के एक बार अस्तित्व में आने के बाद उसके अंदर भी परंपरा का तत्त्व उसी तरह मौजूद रहता है। लेकिन इस तत्त्व का रूपांतरण वर्ग संबंधों के कारण होता है - अर्थात उन लोगों के बीच के आर्थिक संबंध जो इन रूपांतरणों का कारण बनते हैं। सबक नं 5. हर वर्ग अपने आर्थिक संबंधों के आधार पर सामाजिक और राजनैतिक विचारों का एक ऐसा तिलस्म खड़ा कर लेता है जो उसके आर्थिक आधार से पूरी तरह असंबद्ध नजर आता है। सबक नं 6. किसी ज्ञान या सिद्धांत की सच्चाई व्यक्तिपरक भावनाओं से तय नहीं होती है, बल्कि सामाजिक व्यवहार में वस्तुपरक परिणामों से तय होती है। सबक नं 7. अगर मनुष्य सफल होना चाहता है, अर्थात, अपेक्षित परिणाम हासिल करना चाहता है, तो उसे अपने विचारों को बाहरी वास्तविक जगत के साथ समन्वित करना होगा; अगर उनका समन्वय नहीं होगा तो वह अपने प्रयास में नाकाम होगा। सबक नं 8. राजनीति में लोग हमेशा ही छलावे तथा ग़लतफ़हमी के शिकार रहे हैं, अज्ञानी होने के कारण, और होते रहेंगे जब तक कि वे सभी नैतिक, धार्मिक तथा सामाजिक वक्तव्यों, घोषणाओं तथा वायदों के पीछे एक या दूसरे वर्ग के हितों की पड़ताल करना नहीं सीख लेते हैं। विशेष तौर पर नेतृत्त्व की यह ज़िम्मेदारी है कि वह सभी वैचारिक मसलों की गहन समझ हासिल करे। सबक नं 9. काफी तादाद में लोग सतही या पूरी तरह नदारद सैद्धांतिक प्रशिक्षण के साथ, आंदोलन के व्यावहारिक महत्व तथा सफलता के कारण उसमें शामिल हो गये हैं। सबक नं 10 इस समय तो हम केवल इतना कहना चाहते हैं कि हरावल लड़ाकू की भूमिका केवल ऐसा संगठन ही निभा सकता है जो अत्याधिक विकसित सिद्धांत से संचालित हो। सबक नं 11 राज्य का सर्वोच्च रूप, जनवादी गणतंत्र, जो हमारी आज की सामाजिक परिस्थितियों में अधिक से अधिक अटलनीय आवश्यकता बन गया है, और जो राज्य का वह स्वरूप है केवल जिसके अंतर्गत ही सर्वहारा वर्ग तथा बुर्जुआ वर्ग के बीच का अंतिम निर्णायक युद्ध लड़ा जा सकता है - जनवादी गणतंत्र आधिकारिक रूप से संपत्ति की असमानताओं को स्वीकार नहीं करता है। सबक नं 12 उत्पीड़ित वर्ग, हमारे मामले में सर्वहारा वर्ग, जब तक अपने आप को स्वतंत्र करने के लिए परिपक्व नहीं हो जाता है, तब तक उसका बहुमत मौजूदा सामाजिक व्यवस्था को ही एकमात्र संभव विकल्प समझता रहेगा, तथा राजनीतिक रूप से पूँजीवादी वर्ग का ही दुमछल्ला बना रहेगा। सबक नं 13 सार्विक मताधिकार कामगारों की परिपक्वता का मापदंड है। वह आधुनिक राज्य के अंतर्गत इससे अधिक न कभी हो सकता है और न कभी होगा, पर यही काफी है। जिस दिन सार्विक मताधिकार का थर्मामीटर कामगारों के बीच खलबली का चरम बिंदु दर्शाने लगेगा, वे, और पूँजीपति भी समझ जायेंगे कि वे कहाँ पहुंच गये हैं। सबक नं 14 आंदोलन के हित में भी नहीं है कि किसी एक देश के मजदूर उसके आगे आगे चलें - बल्कि वे लड़ाई के मैदान में एक सम्माननीय स्थान हासिल करेंगे, और जब या तो औचक गंभीर परीक्षा की घड़ी या फैसलाकुन वाक़या उनसे अत्याधिक साहस, अत्याधिक दृढ़ता तथा ऊर्जा की मांग करेगा तब वे लड़ाई के लिए मुस्तैद तैयार खड़े होंगे। सबक नं 15 एक ही रास्ता है, और वह है, हमारे चारों ओर के इसी समाज में उन शक्तियों, जो उस क्षमता का गठन कर सकती हैं जो पुरातन को बुहार कर नये का निर्माण करने में सक्षम है तथा जिन्हें अपनी सामाजिक परिस्थिति के कारण करना चाहिए, को ढूँढ निकालना और संघर्ष के लिए उन्हें जागरूक तथा संगठित करना। सबक नं 16 ऐतिहासिक घटनाएँ समग्र रूप से संयोग के नियम के अनुरूप प्रतीत होती हैं। लेकिन जहां सतह पर आकस्मिकता का बोलबाला है, वहां वास्तव में यह हमेशा आंतरिक, छिपे हुए कानूनों द्वारा नियमित होता है, और बात केवल इन नियमों की खोज की है। सबक नं 17 महान मूल विचार, कि संसार को तैयार चीज़ों के समुच्चय के रूप में नहीं समझा जाना चाहिए, बल्कि प्रक्रियाओं के समुच्चय के रूप में समझा जाना चाहिए, जिसमें, जितनी देर तक स्थिर हमारे मस्तिष्क में उनके प्रतिबिंब अर्थात अवधारणाएं रहती हैं, केवल उतनी देर तक स्थिर प्रतीत होनेवाली चीज़ें, अस्तित्व में आने और नष्ट होने वाले अनवरत परिवर्तन से गुज़र रही हैं, जिसमें प्रतीत होनेवाली अनिश्चितता तथा अस्थाई अवनति के बावजूद एक प्रगतिशील विकास ही अंतत: प्रभावी होता है। यह आधारभूत विचार, विशेषकर हेगेल के समय के बाद से, आमचेतना में इतनी अच्छी तरह घर कर चुका है कि सर्वव्यापी नियम के रूप में उसका विरोध यदा कदा ही होता हो। पर इस मूलभूत विचार की शब्दों में स्वीकृति एक बात है, और यथार्थ के धरातल पर, हर किसी आयाम की पड़ताल में उसको व्यापक रूप में लागू करना बिल्कुल ही अलग बात है। सबक नं 18 मेरा दृष्टिकोण, जिस में समाज के आर्थिक निर्माण के विकास को इतिहास की सहज प्रक्रिया के रूप में देखा जाता है, व्यक्ति को उन संबंधों के लिए उत्तरदायी कैसे ठहरा सकता है जो उसके स्वयं के सामाजिक स्वरूप के निर्माता हैं, मनोगत रूप से वह कितना भी अपने आप को उन से ऊपर मानता रहे। साथियो अंग्रेज़ों से आजादी मिलने के बाद, संविधान सभा द्वारा पारित संविधान के अनुसार, विविधताओं वाले अनेकों प्रदेशों तथा रियासतों का, सार्विक मताधिकार आधारित बुर्जुआ जनवादी गणराज्य के रूप में गठन किया गया था जिसमें गुप्त मतदान के आधार पर चुनी गई जन प्रतिनिधि सभाओं में राष्ट्रराज्य की सभी शक्तियां निहित हैं। प्रतिनिधि सभाओं द्वारा पारित कानून आम लोगों के आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक जीवन और व्यवहार का नियमन करते हैं। अपने जन प्रतिनिधि को चुनने का, बिना किसी भेद-भाव के समान अधिकार सभी को है, यह विचार पिछले 75 साल में आम जनचेतना में अच्छी तरह घर कर चुका है। इसीलिए प्रतिनिधि सभाओं द्वारा पारित कानून, छुटपुट औपचारिक अहिंसक विरोधों के बावजूद आमतौर पर स्वीकार्य होते हैं। आम जनता को हिंसक विरोध स्वीकार्य नहीं है। वोट न देने के बावजूद मेहनतकश वर्ग, बुर्जुआ वर्ग के प्रतिनिधियों को ही अपना प्रतिनिधि मानता है। मार्क्सवादी होने के नाते आप जानते हैं कि मौजूदा व्यवस्था में सभी सामाजिक समस्याओं का कारण, सामूहिक रूप से पैदा किये गये अतिरिक्त मूल्य का व्यक्तिगत हस्तांतरण ही है। पर श्रम आधारित मूल्य और अतिरिक्त-मूल्य के सिद्धांत ने जनचेतना में घर नहीं किया है क्योंकि श्रम आधारित मूल्य के सिद्धांत की समझ, अत्याधिक विकसित मजूरी आधारित पूँजीवादी व्यवस्था को प्रतिबिंबित करती है, जब कि देश में 95% श्रमिक आबादी, सामंतवादी तथा असंगठित बुर्जुआ उत्पादन व्यवस्था का हिस्सा है, केवल 5% मजदूरी आधारित श्रमिक आबादी है और इसी कारण आम जनचेतना सामंती परंपरावादी, बुर्जुआ आत्मवादी और धार्मिक रूढ़िवादी है। व्यक्तिगत-श्रम तथा सामूहिक-श्रम द्वारा भौतिक जीवन का उत्पादन, मानव जीवन का तथा मानव समाज का आधार है और, उत्पादन के साधनों का तथा उत्पादक शक्तियों का विकास मानव समाज की स्वभाविक प्रक्रिया है। सकल घरेलू उत्पाद का एक बड़ा हिस्सा पारंपरिक कृषि और असंगठित तथा लघु उत्पादन क्षेत्र से आता है जिसमें अतिरिक्त मूल्य का हस्तांतरण वाणिज्यिक पूँजी के जरिए होता है। इस कारण भारतीय अर्थव्यवस्था का मुख्य अंतर्विरोध वाणिज्यिक पूँजी और औद्योगिक पूँजी के बीच है और राजनीतिक अंतर्विरोध सामंती-अधिनायकवाद और बुर्जुआ-जनवाद के बीच है। अर्थव्यवस्था में संख्याबल के रूप में मजूरी आधारित सर्वहारा की भागीदारी 5% है इस कारण राजनीतिक रूप से सर्वहारा-जनवाद या समाजवाद का समय अभी बहुत दूर है। भारत की राजनीतिक-आर्थिक प्रतिगामी दिशा को रोकने और उसे अग्रगामी दिशा प्रदान करने के लिए जरूरी है कि 2024 के चुनाव के लिए अग्रगामी शक्तियों को एकजुट किया जाय। वैज्ञानिक दृष्टिकोण आधारित सिद्धांत की समझ से लैस होने के कारण यह आपका दायित्व है कि आप उन शक्तियों को एकजुट करें और यह आपको करना चाहिए। एकजुटता के इस प्रयास के लिए सीटों की अपनी दावेदारी आगे न रखें बल्कि न्यूनतम कार्यक्रम के आधार पर एकजुटता हासिल करें और एकजुटता के प्रयास में सम्माननीय स्थान हासिल करें तथा औचक गंभीर परीक्षा की घड़ी में मुस्तैद तैयार खड़े हों। 2024 के चुनाव में दो मुख्य राष्ट्रीय पार्टियाँ आमने सामने होंगीं। वाणिज्यिक-पूँजी तथा सामंती-अधिनायकवाद के प्रतिनिधि के रूप में भाजपा और औद्योगिक-पूँजी तथा बुर्जुआ-जनवाद के प्रतिनिधि के रूप में कांग्रेस। बाकी प्रादेशिक राजनीतिक दल महागठबंधन बनाने का प्रयास करेंगे पर वह केवल लोगों को भ्रमित ही करेगा। जाहिर है मार्क्सवादी होने के नाते आपका प्रयास होना चाहिए कि 2024 के चुनाव के लिए सभी प्रगतिशील ताकतें कांग्रेस के नेतृत्व में एकजुट हों। इसकी मांग और प्रयास अभी से शुरू कर दिये जाने चाहिए ताकि कांग्रेस के आंतरिक अंतर्द्वंद्व में संतुलन, प्रतिगामी ताकतों की तुलना में प्रगतिशील ताकतों के हक़ में हो। देश की राजनीतिक प्रक्रिया में तीन कम्युनिस्ट पार्टियों के अलावा अनेकों अन्य संगठन हैं जो मार्क्सवादी होने का दम भरते हैं। अनेकों संगठनों तथा गुटों की मौजूदगी सर्वहारा चेतना के विस्तार और कामगारों की एकजुटता में एक बड़ा रोड़ा है। प्रत्यक्ष में वे एकजुट नहीं हो पाते हैं क्योंकि उनके बीच भारतीय अर्थव्यवस्था के विश्लेषण के बारे में मतभेद हैं और फलस्वरूप क्रांतिकारी आंदोलनों की रणनीति के बारे में भी मतभेद हैं। पर मूल कारण है कि आजादी की लड़ाई में वामपंथी आंदोलन की नींव ही मार्क्सवाद की संशोधनवादी समझ के साथ रखी गई थी और हमेशा से लोग सतही या पूरी तरह नदारद सैद्धांतिक प्रशिक्षण के साथ, आंदोलन के व्यावहारिक महत्व तथा सफलता के कारण उसमें शामिल होते रहे हैं। यही कारण है कि औचक गंभीर परीक्षा की घड़ी या फैसलाकुन समय पर वे हमेशा ही गलत निर्णय लेते रहे हैं। कौन सही था और कौन गलत था, यह तर्क से तय नहीं हो सकता है। सौ साल बाद भी वामपंथी आंदोलन अपने आपको विकल्प के रूप में पेश करने की स्थिति में नहीं है, इस बात की तसदीक़ करता है कि वामपंथी यथार्थ के बारे में अपनी समझ को यथार्थ के साथ समन्वित करने में नाकाम रहे हैं। सभी वामपंथी गुटों के नेतृत्त्व की यह ज़िम्मेदारी है कि वह सभी वैचारिक मसलों की गहन समझ हासिल करे और कामगारों को सर्वहारा चेतना से लैस करे। उम्मीद है आप सभी SFS (सोसायटी फॉर सांइंस) की बार बार दी जा रही चेतावनी पर ग़ौर करेंगे और नई पीढ़ी के सामाजिक सरोकारों के प्रति जागरूक युवाओं को, किसी के साथ प्रतिबद्ध होने से पहले, विमर्श के जरिए मार्क्सवाद के दार्शनिक आयाम की समझ हासिल करने में मदद करेंगे। व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन में सफलता के लिए शुभकामनाओं के साथ सुरेश श्रीवास्तव 22 अप्रैल, 2022

Wednesday, 12 January 2022

Boycott of Ferozepur meeting and PM’s security in Punjab : A Marxist View

Boycott of Ferozepur meeting and PM’s security in Punjab : A Marxist View On 5th January, 2022, Sri Narendra Modi, who is also the Prime Minister of India, had to address a public meeting organised by BJP in Ferozepur, Punjab. In this meeting, he was going to lay foundation stones for development works for Punjab, worth 42,750 crore rupees. In view of the forthcoming assembly elections in Punjab, this programme was of great importance for BJP. According to scheduled programme, Sri Narendra Modi was to fly from Delhi to Bhatinda base airport by aircraft and from there he was to take a helicopter ride. The programme included Prime Minister’s visit to National Martyrs Memorial at Hussainiwala to pay tributes to martyrs, before Ferozepur public meeting. Prime Minister’s aircraft landed at Bhisiyana airport at 11:05, but because of rain and bad weather it was not possible to continue onward journey by helicopter. Travel by road from Bhisiyana to Hussainiwala was very long, 120 km, about 2 hours. The farmers in Punjab were protesting and were staging dharnas at every Tehseel, Block, and District headquarter, and they had declared to show black flags to the Prime Minister and to burn his effigies. Prime Minister’s programme to pay homage to martyrs at Hussainiwala was also not so very important that, in spite of bad weather and the farmers’ protest, he should have been taken to Hussainiwala by road. But for BJP, Sri Narendra Modi’s reaching in BJP’s public meeting was of utmost priority. After due deliberations, out of the two options - return to Delhi or to take up the road journey to Hussainiwala and then to the public meeting in Ferozepur - it was decided to take the Prime Minister’s convoy by road to the Martyrs Memorial and then to the public meeting. After informing Punjab government and the administration, within half an hour Prime Minister’s convoy started for the Martyrs Memorial at Hussainiwala by road. At 12:15 chief minister Sri Channi informed that two employees in his office have been found Corona positive and he will not be accompanying the Prime Minister in person and he would be joining through video conferencing. At 01:30 Prime Minister Sri Narendra Modi posted on Twitter, “I look forward to being among my sisters and brothers of Punjab today. At a programme in Ferozepur, the foundation stone of development works worth Rs. 42,750 crore would be laid, which will improve the quality of life for the people.” (https://pib.gov.in/PressReleseDetail.aspx?PRID=1787138). For the past several days, farmers' organizations have been making announcements through Gurdwaras and by meeting people personally urging to boycott the meeting. They were stopping the buses being brought by BJP by staging dharnas and pradarshans from place to place. Due to all this, the lack of enthusiasm for the rally on Wednesday morning was clearly visible. A leader of the BJP's Kisan Morcha himself said, “The party leaders [to mobilize the crowd] could not get much help even from the “Labor Chowks”. Meanwhile, the rain had also increased the trouble at the meeting place. From 12:15 onwards, news started doing the rounds in the media with pictures that the crowd could not gather at the meeting place and the chairs were empty. It was informed at 2.15 pm that PM Narendra Modi's rally in Ferozepur has been canceled due to rain and he will return to Delhi from Bhisiana airbase in Bathinda. After this, a round of allegations and counter-allegations started doing round between the Congress and the BJP regarding Shri Narendra Modi having been stranded on the flyover and demonstrators having reached close to his vehicle. While BJP has been claiming it a security lapse and holding Congress government of Punjab responsible for it, Congress is alleging it to be a BJP drama to garner public sympathy in the face of falling popularity of the Prime Minister. As usual, the lower middle class intellectuals are divided and supporting or opposing this or that depending upon their prejudices. It is the responsibility of socially conscious intellectuals to analyze the situation objectively and accurately and guide the new generation so that the new generation can play a meaningful role in social change. The great philosopher Hegel said that a king is a king because people think so and the king knows it. And Marx had explained, "Society is not made up of individuals but represents itself as the sum of inter-relationships, the relations between which the individual stands". For those who have seen the Guide picture of Devananda and understood his mental discourse while fasting for the rain, it should not be difficult to understand the statement of Hegel and Marx. Shri Narendra Modi is one person but the roles he plays are two, one as the representative of the Bharatiya Janata Party and the other as the representative of the state. As the leader of the Bharatiya Janata Party, he has to behave according to the sum total of the aspirations of the RSS and its affiliated organizations and the followers of the BJP and, as a representative of the state, he has to behave in accordance with the aspirations of the nation and the general public. More or less the same is the situation of Shri Amit Shah also. The political system that the country had chosen after independence under the leadership of the Congress was a step ahead of even the most developed bourgeois democracy in England and in line with the thinking of the Utopian Socialist lower middle class intellectual, the constitution was also framed on the lines of the Government of India Act of 1935. But the economy was mainly feudal backward, within which capitalism was making its debut, that is, the beginning of bourgeois production relations. In the early stages the contradictions between feudalism and capitalism were not very sharp and it was not difficult for the Congress leadership to strike a balance between the elements representing both within the Congress and within the country. But with the integration of global capital and the alliance of Indian capital with it, the contradictions between feudalism and capitalism in India have become very sharp. A detailed discussion of India's plural socio-economic structure is not possible here, but today the main contradictions are represented by the Congress and the BJP. It is becoming impossible for both the political parties to maintain an internal balance and the process of intense polarization is going on in both. Just as an individual has a vision, every organization has its own ideology. Congress is a bourgeois democratic party with progressive thinking, believing in collective leadership and policy of economic development through industrial capitalism. BJP is a totalitarian party with a regressive mindset, a belief in individual dictatorial leadership, and a policy of economic development through a system-backed crony-capitalism The kind of rapid polarization that is going on in the country with irreconcilable contradictions both in the political parties and in the country, it is bound to be finally resolved according to the natural laws with the negation of regressive forces. Despite the regressive thinking of all its subsidiaries, it is a practical compulsion for the BJP to feign support for progressive policies to gain majority support in the current democratic system. And who could know it better than Shri Narendra Modi that the followers and supporters of the subsidiary organizations and BJP accept him as their leader because they think that Narendra Modi can fulfill their agenda by maintaining his honest image and garnering support from the government and crony capitalists. He also knows that to remain in the seat of Prime Minister, the support of the liberal lower middle class is more necessary than the support of allies and the followers of BJP. Shri Narendra Modi is well-versed in playing the dual role - when to play the role of a Hindutva religious leader and when to play the role of a secular leader with ‘Sarv dharm sam-bhaav’, committed to the Constitution. As always, Modi wanted the UP elections to be fought in his name so that after the election his trusted chief minister could be installed, but he had to give up before Yogi's insistence and had to announce the name of Yogi as the future Chief Minister. In West Bengal, in spite of the campaign by the entire cabinet he had to face defeat. After accepting defeat in front of the solidarity of the farmers, a decision had to be taken to withdraw the three laws and apologize to the farmers. Modi was beginning to see his and the BJP's political ground slipping due to the falling economy, rising unemployment and a vocal opposition. In order to strengthen the position of BJP in the upcoming elections in five states, strategy was formulated to announce development plans worth thousands of crores. Announcements have already been made in UP as part of the strategy to announce the gift of schemes worth thousands of crores. The proposed public meeting of Ferozepur was also part of this strategy. Had his program as Prime Minister been only to pay homage at the martyr's site, the Home Ministry would have brought him back to Delhi from Bathinda airport by not allowing the Prime Minister to go to Hussainiwala by road. But here, as Narendra Modi, he had to play his second role as the top leader of the BJP which was far more important to the party and to Narendra Modi himself. Therefore, it was decided to travel by road and the Prime Minister's convoy was dispatched immediately after giving proper information to the concerned offices and the local administration. After traveling unhindered for 120 km, the convoy reached the martyr's memorial in about two hours. After paying tribute, the convoy entered the border of Ferozepur in no time. By this time the news had come that there were only a few hundred audience at the meeting place and thousands of chairs were lying vacant. It would have been embarrassing for Narendra Modi as the top BJP leader to address a crowd of a few hundred listeners. So the convoy was stopped on the flyover. Simply canceling the public meeting would have been seen as another victory for the farmers and another defeat for Narendra Modi. Therefore, after waiting for 20 minutes, BJP supporters and opponents were given a chance to raise slogans so that the retreat of Shri Narendra Modi could be given the color of threat to the security of the Prime Minister and the upcoming elections could be won by creating frenzy across the country. Once earlier also the election was won by inciting frenzy in the name of Pulwama. BJP wants to win the election by repeating the history of 2019. But BJP forgets that history repeats itself, but first time it is tragedy, second time it is fraud. BJP will soon realise that the solidarity of the farmers' movement has decided that the workers and farmers will fight together and expose every fraud. Suresh Srivastava 9 January, 2022 __________________________ FOOTNOTE The Ministry of Home Affairs, in a statement, said the Prime Minister landed in the morning at Bathinda airport from where he was to go to the National Martyrs Memorial at Hussainiwala by helicopter.“Due to rain and poor visibility, the Prime Minister waited for about 20 minutes for the weather to clear out. When the weather did not improve, it was decided that he would visit the National Martyrs Memorial via road, which would take more than two hours,” it said. —————————————- ‘Large number of buses were stranded because of the high-handedness of the police & connivance with protestors’ .Jagat Prakash Nadda, President, BJP ————————————— The state BJP unit had claimed that five lakh people would turn up for the Prime Minister Narendra Modi’s Ferozepur rally, but it could hardly gather 5,000 people, proving to be a big embarrassment for the saffron party. —————————— Tribune, 5, January 2022 The BJP had claimed to have arranged 3,200 buses to ferry people from across the state to the rally venue in Ferozepur. The state leadership had allocated buses to each office-bearer of the party. Some constituencies were allocated about 60 buses. However, sensing lukewarm response ahead of the PM’s rally, the party started reducing the number of buses that were to be pressed into service — so much so that the parking arrangement at the rally venue was reduced to just 500 buses. Farmers’ organisations had been preparing for a stiff opposition for several days.They made announcements from village gurdwaras, asking people not to attend the rally. The cold wave and showers added to the BJP’s woes. As a result, the tepid response was all too visible on Wednesday morning. The party could not gather enough numbers to fill the buses to their optimum capacity. “Even party leaders could not get much help from labour chowks,” said a senior leader of the BJP’s kisan morcha. (Source : tribune.com) ——————————— लाइव अपडेट (Source : amar ujala.com) 02:15 PM, 05-JAN-2022 पीएम नरेंद्र मोदी की फिरोजपुर में होने वाली रैली बरसात के कारण रद्द कर दी गई है। सूत्रों ने यह जानकारी दी। वे बठिंडा के भसियाना एयरबेस से दिल्ली लौटेंगे। 02:07 PM, 05-JAN-2022 फरीदकोट के कोटकपूरा में पीएम मोदी की फिरोजपुर की रैली में जा रहे भाजपा वर्करों की बसों को किसानों ने रोक लिया है। दोनों पक्षों के बीच तनातनी हो गई। इसके बाद पुलिस ने बसों को दूसरे रास्ते से भेजा। 01:42 PM, 05-JAN-2022 प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हुसैनीवाला बॉर्डर पहुंचकर शहीद भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को श्रद्धासुमन अर्पित किए। कुछ ही देर में वह पंजाब के लिए 5 बड़े प्रोजेक्टों का उद्घाटन करेंगे। 01:33 PM, 05-JAN-2022 फिरोजपुर रैली से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट किया कि मैं आज पंजाब की अपनी बहनों और भाइयों के बीच रहने के लिए उत्सुक हूं। फिरोजपुर में एक कार्यक्रम में 42,750 करोड़ रुपये के विकास कार्यों के शिलान्यास रखे जाएंगे, जिससे लोगों के जीवन स्तर में सुधार होगा। 12:22 PM, 05-JAN-2022 फिरोजपुर में लगातार हो रही बरसात ने दिक्कत बढ़ा दी है। अभी तक रैली स्थल पर सभी कुर्सियां खाली पड़ी हैं। 12:17 PM, 05-JAN-2022 प्रधानमंत्री मोदी की रैली में सीएम चरणजीत चन्नी नहीं आएंगे। सीएम चन्नी ने कहा कि वह प्रधानमंत्री के स्वागत के लिए जाना चाहते थे लेकिन मुख्यमंत्री कार्यालय में दो लोग कोरोना पॉजिटिव पाए जाने के बाद उन्होंने अपना कार्यक्रम स्थगित कर दिया है। चन्नी वर्चुअल तरीके से कार्यक्रम से जुड़ सकते हैं।

Tuesday, 4 June 2019

सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव में, उन्मादकों, उन्माद तथा संशोधनवाद की भूमिका।

सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव में, उन्मादकों, उन्माद तथा संशोधनवाद की भूमिका
( 2014 के चुनाव सोलहवीं लोकसभा के चुनाव नतीजों का मेरा पूर्वानुमान गलत साबित हुआ था और आत्मालोचना के रूप में मैंने मार्क्स दर्शन के ब्लॉग पर लेख लिखा था ‘सोलहवीं लोकसभा में प्रत्याशित जनादेश’ जिसमें मैंने रेखांकित किया था कि ‘इतिहास गवाह है कि हर पीढ़ी में जनता ने अपनी समस्यायों से निजात पाने के लिए इंदिरा गांधी, जयप्रकाश नारायन और वी.पी. सिंह जैसों को मसीहा बनाया, और फिर अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति में उनको असफल पाकर उनको नकार कर इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिया। मौजूदा दौर में भी जनता ने अन्ना हजारे, फिर अरविंद केजरीवाल और अंत में मोदी को अपना मसीहा बनाया है। जनता मसीहा ढूंढ रही थी, भाजपा अपनी आंतरिक कलह के बीच राजनीतिक स्वीकार्यता के लिए पार्टी के लिए नया चेहरा ढूंढ रही थी। नरेंद्र मोदी में भाजपा को अपना चेहरा मिल गया और जनता को अपना मसीहा। हाल फिलहाल जनता खुशफहमी में है कि नया मसीहा उसे निजात दिलायेगा। हमें वक्त का इंतजार करना होगा और नये मसीहा को समय देना होगा कि इतिहास उसका मूल्यांकन करे।’ http://marx-darshan.blogspot.com/2014/05/blog-post.html) सत्रहवीं लोकसभा के नतीजों से पहले भी मैं मानकर चल रहा था कि जिस परिपक्वता का परिचय राहुल गांधी दे रहे हैं तथा उनकी स्वीकार्यता बढ़ती जा रही, उससे लगता था कि कांग्रेस गठबंधन सरकार बनाने में सफल होगी, पर इस बार भी मेरा अनुमान गलत साबित हुआ। लेकिन इस बार ग़लती के कारण पिछली बार के मुकाबले में भिन्न हैं।    महान दार्शनिक हेगेल का कहना था कि एक राजा, राजा इसलिए होता है क्योंकि प्रजा ऐसा सोचती है, और राजा यह जानता है। राजा की व्यक्तिगत चेतना तथा प्रजा की सामूहिक चेतना का यही द्वंद्वात्मक संबंध है। बुर्जुआ जनवाद में एक नेता, नेता इसलिए होता है क्योंकि जनता ऐसा सोचती है, और नेता यह जानता है। नेता के लिए यह जानना जरूरी है कि जनता किस तरह सोचती है तथा उसके लिए यह भी जरूरी है कि वह इस प्रकार आचरण करे कि जनता सोचने लगे कि एकमात्र वही नेता होने योग्य है। मतदाताओं ने नरेंद्र मोदी को 2019 के चुनाव में भारी बहुमत से दोबारा सरकार की बागडोर सौंपी है क्योंकि इस समय भारतीय मतदाताओं की नजरों में वे सरकार को नेतृत्व प्रदान करने के लिए सबसे अधिक सक्षम तथा योग्य व्यक्ति हैं। दर्जनों राजनीतिक पार्टियों तथा अस्मिता की राजनीति के चलते छोटे छोटे समूहों में विभाजित मतदाताओं ने, किस मानसिकता के कारण एकमत से निर्णय लिया कि नरेंद्र मोदी ही सरकार की बागडोर संभालने के लिए सबसे योग्य व्यक्ति हैं, इसकी पड़ताल जरूरी है। भारतीय अर्थव्यवस्था सामंतवाद तथा पूँजीवाद के जिस संक्रमण काल में है तथा संशोधनवादियों ने राजनीतिक-अर्थशास्त्र के मूलभूत सिद्धांत (मार्क्सवाद) के बारे में जिस प्रकार का भ्रम फैला रखा है, उसमें समाजवाद की दुहाई देनेवाली अनेकों पार्टियों की मौजूदगी तथा उनका अस्मिता की राजनीति करना स्वभाविक है। स्वभाविक रूप से आम आदमी के लिए जीवनोपयोगी वस्तुओं की उपलब्धता सबसे अहम मसला होता है जिसके आधार पर व्यक्ति की अनभिज्ञ-चेतना तथा समूह की भौतिक-सामाजिक-चेतना का निर्माण होता है। तार्किक रूप से व्यक्ति का दीर्घकालिक आचरण मूल रूप से उसके जीवन से जुडी गतिविधियों अर्थात उसके आर्थिक हितों की पूर्ति से निर्धारित होता है। पर तीव्र उन्माद की स्थिति में व्यक्ति की तर्कबुद्धि जड़ हो जाती है और व्यक्ति का आचरण नियमित न होकर अनियमित हो जाता है। जो बात व्यक्ति पर लागू होती है वही समूह पर भी लागू होती है। घरेलू अर्थव्यवस्था के स्तर पर पिछले साढ़े चार साल में नरेंद्र मोदी की सरकार ऐसी कोई सफलता हासिल नहीं कर सकी जिसके आधार पर उन्हें 2019 के चुनाव में बहुमत हासिल हो पाता। बल्कि जनवरी आते आते सरकारी ख़ुफ़िया एजेंसियों द्वारा प्राप्त ख़बरों से भाजपा को समझ आ गया था कि अगर जल्दी ही जनता को उन्माद की हद तक उत्तेजित नहीं किया गया तथा शांत चित्त के साथ वोट देने दिया गया तो कॉंग्रेस के मुकाबले में भाजपा की हार निश्चित है। संघ परिवार हिंदु-मुसलमान वैमनस्य, लव जिहाद, गोहत्या, बाबरी मस्जिद, असम में नागरिक पंजीकरण आदि के नाम पर धार्मिक ध्रुवीकरण कराने तथा उत्तेजना को उन्माद के स्तर तक भड़काने में नाकाम हो रहा था। सर्वधर्म समभाव की मानसिकता वाले व्यापक हिंदु समाज को धर्म के आधार पर ध्रुवीकरण करके उन्माद की हद तक उत्तेजित कर पाना असंभव है। धार्मिक कट्टरपन के आधार पर मध्यवर्ग के एक हिस्से को दंगे करने की हद तक उत्तेजित कर पाना तो संभव है, पर व्यापक हिंदु समाज को लंबे समय तक उन्मादित रख पाना असंभव था। और अर्थव्यवस्था तथा सांप्रदायिक सौहार्द के मामले में विपक्ष काफी हद तक भाजपा सरकार को घेर पाने में कामयाब नजर आ रहा था। नरेंद्र मोदी के मुकाबले में राहुल गांधी की जनप्रियता भी बढ़ती जा रही थी। राहुल गांधी परिपक्वता दिखाते हुए क्षेत्रीय दलों के साथ गठजोड़ कर पाने में भी कामयाबी की तरफ बढ़ते नजर आ रहे थे। अस्मिता की राजनीति के चलते अनेकों समूहों में बंटा भारतीय मतदाता मानसिक संतुलन की स्थिति में, नोटबंदी के कारण जीडीपी में हुई गिरावट, जीएसटी की उँची दरों तथा काग़ज़ी कार्यवाही के झमेलों के कारण होनेवाली परेशानी तथा बेरोज़गारी जैसे अहम मसलों को नजरंदाज करते हुए, विवेकपूर्ण निर्णय के साथ भाजपा को वोट देगा ये कल्पनातीत था। खंडित जनादेश की दशा में भाजपा के लिए फिर से सरकार बना पाना असंभव होता। ऐसे में कट्टर राष्ट्रवाद ही एक ऐसा विचार हो सकता था जिसके आधार पर व्यापक मतदाता को कुछ समय तक तीव्र उन्माद की मनःस्थिति में रखा जा सकता था। और फरवरी से चुनाव होने तक इस उन्माद को हवा देने तथा बरक़रार रखने के लिए राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों में सारे अवयव मौजूद थे। पिछले तीन साल से जेएनयू के कुछ छात्रों के खिलाफ टुकड़े टुकड़े गैंग के आरोप लग ही रहे थे, ऐसे में वामपंथ ने अपनी अवसरवादी नीति के चलते कन्हैया कुमार को केंद्र में लाकर खड़ा कर दिया। कश्मीर में आतंकवाद तथा धारा 370 से संबंधित उन्माद का उत्पादन करने वाले उत्पादक निरंतर उन्माद पैदा करने के लिए मीडिया में अंतहीन बहसें चला ही रहे थे। जितना ज्यादा कन्हैया कुमार के नारे ‘आजादी लेके रहेंगे’ को प्रचारित प्रसारित किया जा रहा था उतना ही संघ परिवार का राष्ट्रवाद के नाम पर खड़ा किया गया विभाजन तीव्र होता जा रहा था। इस माहौल में राहुल गांधी के रोजगार तथा आर्थिक उत्पादन के तर्कपूर्ण बयानों की प्रत्यक्षता आच्छादित होते जाना स्वाभिक था, जबकि कांग्रेस के अपने दिग्गज नरेंद्र मोदी के खिलाफ लड़ने के अति उत्साह में, अपने रणक्षेत्र को छोड़ कर, भाजपा द्वारा रचे जा रहे चक्रव्यूह में जा कर लड़ने पर आमादा थे। आंतरिक अर्थव्यवस्था तथा मध्य एशिया तथा सुदूर पूर्व की राजनीतिक व्यवस्था के मोर्चे पर असफलता के कारण अमेरिकी प्रशासन कट्टर राष्ट्रवादी भावनाओं को उभारकर जनमत अपने पक्ष में करने का प्रयास कर रहा था।अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चीन के द्वारा पेश चुनौतियों के कारण भारत तथा अमेरिका दोनों के हित में था कि अंधराष्ट्रवाद के उन्माद को ज्यादा से ज्यादा हवा दी जाये। मसूद अज़हर को प्रतिबंधित करने का मसला कई महीनों से सुलग रहा था। ऐसे में पुलवामा पर हमले ने उचित माहौल तैयार कर पर्याप्त विस्फोटक सामग्री भी मुहैया करा दी थी। बस जरूरत थी पलीत लगाने की जिसके लिए अमेरिकी सहयोग तथा सहमति पहली शर्त थी। पटकथा तैयार की गई कि घटनाक्रम को इस प्रकार अंजाम दिया जाय कि यह दर्शाया जा सके कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में पाकिस्तान की नकेल कसने के लिए जिस दृढ़ इच्छाशक्ति की जरूरत है वह केवल नरेंद्र मोदी के पास ही है और चीन तथा पाकिस्तान के गठजोड़ के खिलाफ भारत की संप्रभुता तथा अखंडता को बचा कर रखने की क्षमता लौह पुरुष नरेंद्र मोदी के अलावा और किसी में नहीं है। इसके लिए पुलवामा पर हुए हमले के बदले पाकिस्तान के बालाकोट स्थित आतंकी शिवर पर हमले के लिए अमेरिका की सहमति तथा मसूद अज़हर को प्रतिबंधित करने के लिए चीन की सहमति आवश्यक थी। पटकथा के सफल मंचन के लिए अमेरिका तथा चीन की सहमति तथा सहयोग आवश्यक था, पर सहयोग हासिल करने के लिए कुछ न कुछ कीमत तो चुकानी ही पड़ती। मध्य एशिया में अमेरिका अपना रणनीतिक बर्चस्व बरक़रार रखना चाहता है और उसकी मांग थी कि ईरान के खिलाफ अमेरिका द्वारा लगाये गये प्रतिबंधों को प्रभावी बनाने के लिए भारत को ईरान से तेल लेना बंद कर अमेरिका से तेल लेना होगा। चीन मध्य एशिया से लेकर दक्षिणपूर्व एशिया तक शांति तथा सहयोग के लिए गंभीरता से प्रयास करता रहा है, क्योंकि यह उसकी महत्वाकांक्षी ओबीओआर सिल्क रूट योजना की सफलता के लिए बहुत जरूरी है। चीन की मांग थी कि दोनों ओर से कोई भी सामरिक कार्यवाही करते समय संयम बरता जाय तथा पुलवामा पर हुए हमले के लिए पाकिस्तान को ज़िम्मेदार न ठहराया जाय। अपने अपने हितों के मद्दे नजर, अमेरिका, चीन तथा पाकिस्तान तीनों ही चाहते थे कि भारत में एक स्थिर सरकार हो। वामपंथियों तथा तृणमूल के अपने अपने पूर्वाग्रहों के तथा सपा-बसपा के गठजोड़ के चलते, कांग्रेस के लिए स्थिर सरकार का गठन कर पाना असंभव था। ऐसे में अमेरिका तथा चीन की मांग को मानते हुए, तैयार की गई पटकथा के मंचन में चारों किरदारों के हितों की पूर्ति हो रही थी इसलिए मंचन के लिए हरी झंडी दे दी गई। पत्रकारों, एंकरों, रिटायर्ड जनरलों तथा नौकरशाहों, लेखकों तथा कलाकारों की पूरी फ़ौज, उन्मादकों के रूप में उन्माद पैदा करने के लिए तैयार बैठी थी। खाये-पिये-अघाये निम्न मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों की फ़ौज भी, फेसबुक, व्हाट्सएप, ट्विटर आदि प्लेटफ़ॉर्म के जरिए, पैदा किये गये उन्माद को आम मतदाताओं तक पहुँचाने के लिए तैयार बैठी थी। पूंजी निवेश के लिए भाजपा ने चुनावी बॉंड के जरिए पर्याप्त धनराशि पहले ही जमा कर रखी थी। हरी झंडी मिलते ही, वैचारिक उत्पाद के प्रचार प्रसार के लिए सभी जी जान से जुट गये व तीन महीने में ही राष्ट्रवाद का उन्माद मतदाताओं के सर चढ़कर बोलने लगा और सारे बुनियादी मुद्दों की मांग नेपथ्य में चली गई। (18 फरवरी, 2019, फेसबुक ग्रुप पर मैंने लिखा था - पुलवामा में सीआरपीएफ़ के क़ाफ़िले पर हुए आतंकी हमले के संदर्भ से, 17 फरवरी 2019 रविवार को असम के लखीमपुर में भारतीय जनता युवा मोर्चा की रैली को संबोधित करते हुए भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कहा कि ‘सीआरपीएफ़ के चालीस जवानों की शहादत व्यर्थ नहीं जायेगी क्योंकि केंद्र में अब भाजपा की सरकार है’। उन्हें शायद याद नहीं रहा कि 1916 में पठानकोट में एयरफ़ोर्स बेस पर तथा उरी में सेना के ब्रिगेड हेडक्वार्टर पर आतंकी हमले के समय भी भाजपा की ही सरकार थी। या शायद उनकी शहादत इसलिए याद नहीं रही क्योंकि उनमें मारे गये जवानों तथा मारे गये आतंकियों का अनुपात अधिक नहीं था। या फिर शायद वे जानते हैं कि जनता की याददाश्त कमजोर होती है और उन्माद बढ़ जाने पर तर्कबुद्धि के साथ साथ स्मृति का ह्रास भी होता है।) और 26 फरवरी 2019 को बालाकोट पर सीमित हवाई हमला हो गया, अभिनंदन का हवाई जहाज़ मार गिराया गया और उन्हें बंदी बना लिया गया और फिर उसके बाद राष्ट्रवादी उन्माद की कोई सीमा न रही। नतीजे के रूप में पाँच साल के लिए चुनी गई स्थिर सरकार सामने है। पर उन्माद की परिणति स्खलन में होना एक प्राकृतिक नियम है, और फिर सामने मुँह बाये खड़े होंगे रोज़ी, रोटी, शिक्षा तथा स्वास्थ्य से जुड़े मूल मसले। आगे का रास्ता क्या होगा ये जानने के लिए दो साल इंतज़ार करना होगा। सुरेश श्रीवास्तव 4 जून 2019

Monday, 8 April 2019

Labour theory of Value and Surplus value


Labour theory of Value and surplus value As the market economy was developing and the barter system in which producers of different products exchanged their products according to their use, was being replaced by commodity based exchange of various products through middlemen, the relative quantities of various commodities being exchanged appeared to be through mutual consensus. But as the mercantile economy developed, it transpired that there must be some element commonly present in all the commodities, amounts of which determined the relative quantities of commodities in exchange. This element could not be utility or use-value as utility of different things was different. This element came to be known as ‘exchange value’ or simply ‘value’. No one knew what determined the value of a commodity and was generally thought to be determined by the balance between supply and demand. Here we can not go into the history how a fixed quantity of a precious metal, a commodity, assumed the role of the standard unit to measure the value of all other commodities, that is money. But one thing is obvious that value of any commodity is intangible and equal values can be exchanged only when they are manifested as something tangible either in the form of commodities as in barter, or any other thing whose value as a standard of exchange is acceptable to both the parties without any ambiguity. In the developed market economy, within the domain of a state, coins minted or paper currency printed by the state came to be accepted as money. since then value of every commodity is expressed in terms of money, and price expressed in terms of money has become synonymous to value. Because of this obfuscation people are unable to understand the real character of value and that how it is created and how profit is generated. In the initial stage of fully developed market economy in which mercantile capital controlled exchange of commodities, economists and philosophers were intrigued about the genesis of the element of ‘Value’. But with industrial revolution and mass scale production with wage-labour, it was becoming clear that wide varieties of commodities are being produced by same kind of uniform labour and thinkers started contemplating some relation between value and labour. Two important economists Adam Smith and David Ricardo postulated that value is a measure of the average uniform labour time spent in producing a commodity. While equating value to labour time, Adam Smith considered only the direct labour time spent, David Ricardo included the past labour also in terms of raw material and depreciation of means of labour. But they were unable to understand how profit is generated when in a fully developed market economy every commodity including wage-labour is sold at its value. The credit goes to Marx to reveal the true essence of value and surplus value. With his thorough understanding of Dialectics of Nature, he could conceive the dual nature of human labour power and also the dual nature of the product of labour, and also the Dialectical relationship between the ‘Labour Power’ and the ‘Labour’. Labour power is expanded to produce physical means of life, and consumption of physical means of life regenerates the labour power spent. And this dual relationship is not ‘cyclical’ but is ‘spiral’. With every cycle the productivity of labour power rises to a higher level. The human labour power is naturally endowed to be capable of producing more than what is needed to regenerate it. Or in other words it is capable of generating ‘Surplus-value’. By establishing his ‘Labour Theory of Value and Surplus-value’ Marx converted political-economy into a real science. In order to understand ‘value’, you have to keep in mind that human labour power and the useful outcome of that labour power spent, have dual characters. Firstly any useful labour can be seen as sum total of very small fractions of labour power expanded in very small fractions of time. In this aspect labour of different workers is same. Secondly, permutations and combinations of well arranged fractions of labour can produce different unique labour outcome to produce different commodities capable of satisfying different needs. Congealed labour is absorbed within the commodity and an observer can not perceive it by sense organs. The two aspects of labour can not be separated physically and any product of use presents itself only as an useful product. In barter system both parties see only utility of other’s product without so much as bothering about ‘value’. But when the barter system takes the form of exchange, the scenario changes and so does the outlook of the producer as a ‘seller’. He sees only a value in his product as he is not interested in using it but is interested in exchanging it for something of utility. But his buyer is not in a position to offer something of immediate use to the producer. Instead he is able to offer something which can be further exchanged by the producer for something useful and in this sense the producer tries to asses the ‘equivalent value’ of the commodity he is receiving in lieu of his product. Thus during exchange one person sees two different values in two different commodities. In one he sees ‘relative value’. In the other commodity he sees a value equivalent to the use value of the commodity which he can get in the market for the exchange of the commodity to be received. Or in one commodity two different persons, because of their different positions, see two different values, ‘relative vale’ in the form of uniform labour and ‘equivalent value’ in the form of special useful labour. If you are conversant with Dialectical relationship between being and consciousness than it should not be difficult to understand the difference between the mentality and motivation of the producer, of the consumer and of the middleman in relation to the exchange of a commodity. 1. When we talk of ‘Lagat Mulya’ we talk of the value (Labour power x Time) spent by the workman transforming natural resource into useable form i.e. in producing the commodity and he sells it in exchange of something whereby he could buy goods to replenish all that is necessary to reproduce and sell anew. He equates the use-value of all the goods he buys, to the value invested or ‘Lagat Mulya’. Use-value of goods needed to replace his labour-power remains same but relative-value of goods produced by him reduces or ‘Lagat Mulya’ decreases with experience as his productivity increases because of improved skill and instruments of labour. 2. The consumer buys a commodity in exchange of something which he owns, whether he has produced it or has acquired by any other means and assesses that the use-value of the commodity which he is going to buy is equivalent to the value of goods he is giving in exchange. 3. The middleman buys a commodity to sell it, and to sell in exchange with something of higher value than he paid for buying it. Otherwise he will not be interested in buying and selling of that commodity. To be able to sell, it is necessary that his buyer has a need for the commodity being sold and assesses its equivalent value same as the middle man expects to fetch. Or in other words the middleman must know in advance at what price he will be able to sell to the consumer. Thus the middle man buys a commodity at the relative-value as assessed by the producer, and sells it at equivalent value as assessed by the consumer. Thus a commodity reflects three different sets of ideas in the minds of three different persons depending upon their relative positions. The producer sees the relative-value on the basis of uniform labour time spent in producing the commodity. The consumer sees the equivalent-value on the basis of the labour-power to be regenerated with the consumption of the commodity, and the middleman sees the surplus-value or the difference between the equivalent-value being seen by the consumer and the the relative-value being seen by the producer. As the exchange is being done with the help of the money, we can equate value to price and we can analyse the transaction on the basis of purchase price and sale price to understand how the profit is generated while every commodity is being sold at its value. As explained above, the capitalist purchases labour-power of a worker at a price ‘X’, and makes the worker expand this labour-power to produce commodity of price ‘X+x’. He sells part of the commodity for a price ‘X’ to a consumer to regenerate his labour-power of price ‘X’ which he sells at price ‘X’ to the capitalist to reproduce ‘X+x’ anew. The surplus ‘x’ is pocketed by the capitalist as profit. This is a simple model to explain, but in fact in modern capitalist economy there are hundreds of workers, hundreds of consumers and hundreds of capitalists under the control of a single gargantuan capital. Suresh Srivastava 8 April, 2019

Thursday, 21 March 2019

Correct question begets correct answer

Asking the correct questions can give the correct answers .A lot of din and pandemonium is created these days exhorting people to usher in a 'Socialist  Revolution .' But the phrase 'Socialist Revolution' means different things to different people even to the extent that, there are as many number of Socialisms as the number of its proponents . Inspite of beating the drum about 'an alternative narrative' , 'a new paradigm' etc many of the proponents are not able to give much details and nuances about what the 'alternative narrative ' and the 'new paradigm' .
  A) In defence to their inability to give out much details , the logic given out is that there are no readymade and all weather solutions to the problems and that problems need to be accessed based on the time period and region where the change is to be usherd in to provide the nitty gritties of the new paradigm .The same is a valid fact, but the same doesn't mean that there can't be and there shouldn't be planning and working out of the fine details (based on the specific time period and specific region ) of what ought to happen once the 'socialist revolution' is usherd in .

   B)Another aspect that is put forward is that it is not possible to preconceive and predict with  perfection and absolute certainty  about the course of action that is to be taken . The same also a fact worth reckoning but that cannot by any stretch of imagination made to propose that planning is not possible .To juxtapose prediction with planning is a logical folly . Planning ,preconception and conceptualisation of the alternative path forward should be made to the maximum extent possible (of cours,e with the disclaimer regarding the assumptions made and the possibilities of errors) based on the historical experiences (and the information derived from the same) available as on date and by taking into consideration the specific context of the time period and the region . The effectiveness of the plan can be judged and should be judged during the course of execution(praxis / practice) of the same and the outcomes achieved shall be compared with the desired outcomes and new inferences and course corrections ought to be made in the future course and the same shall proceed all along .

C)Some others put forward the argument that knowledge comes through practice and experience and the fine details can evolve only in the course of action . That knowledge doesn't arise from contemplation , meditation and speculation alone is true, and ,on the contrary knowledge is created based on the observations made based on the past  experiences obtained from the course of action (practice/ praxis) and verifying the reproducibility and replaceability of the the knowledge and making the necessary updations and modifications in the future and the process goes on and infinitum .But it is to be taken note of the fact that for a particular generation to start a course of action the knowledge available can be obtained only from past experiences ,and not to draw the correct inferences and conclusions based on the observations made on the past observation through the 'scientific method'  (the scientific method is stressed ) is again a flawed way of decision making .

D) The argument that discussions ,debates and other activities regarding the alternative path is just a delaying tactic and that it just tries to postpone sine die the inevitable course of action by stressing too muçh on' interpreting the world'  rather than on 'changing the world ' are ignoring the Scientific method which is characterized by a)
Identification of the objective of study , b) observations of relevant facts based on past experienceand practice  c) drawing primary inferences from the observations made (hypothesis) d) Verification of the applicability and the validity of the hypothesis in varying conditions and making the necessary updations to the hypothesis based on the verification e) Establishment of the Scientific theory based on the above steps .It is this scientific method that has helped mankind to accomplish what it has achieved so far . The same is applicable for the argument that efforts in finalising the future path of action before hand is futile .Those who are enamoured and infatuated  by the idea of equality and justice and are in the urge to usher in the socialist revolution shall keep in mind that by ignoring the Scientific method and directly plunging into action may lead to a situation where the protagonists end up in rocking the boat of the very revolution (abrupt qualitative change) they try to bring forth and will further make life miserable for the very same people for whom they vouch to fight for .

The following are some train of thoughts that are enumerated in interrogative form for the proponents of the Socialist Revolution to reflect upon and to bring before public domain their views on the same so that the inquisitive and uninitiated individuals can get an idea of the same .These train of thoughts or queries are not exhaustive and complete .All others are encouraged to add further aspects for which they feel that clarification is required from the proponents of the socialist revolution

1) Will there be any change in the production process in the Socialist Stage and in the Capitalist mode
2) Will the pace of automation and Mechanisation increased in the Socialist stage
3)Will the intrest of the micro , small , medium
enterprises and the peasents with small land holdings be protected in the Socialist Stage .Or will the pace of proliterisation of the aforementioned group of people along with all those who are involved in self employment be accelerated in the socialist stage .
4) Will there be private ownership in the Socialist Stage
5) Will there be any change in the state machinery and its control in the Socialist stage and in Capitalism
6) The focus in the Socialist stage will be on the enhancement of production or will the thrust be in distribution and distributive justice
8)Will there be any change in the level of the individual worker, with respect to the working conditions and standard of living in the socialist stage and the Capitalism
9) What will be the intent of production in socialism ,will it be profit through exchage or will it be the production for use (In other words will commodity production hold sway in Socialist Stage)
10) Will the Percentage of population engaged in agriculture increase in the Socialist stage or will it get reduced
11) Will the pace of urbanisation increase in the socialist stage or will it get reduced .
12) Can the welfare policies that are implemented in the advanced nations (Scandinavia ,Canada typical examples) be part of the Socialist stage .In other words how the socialist state  differs from the welfare states of the aforementioned nations
13) Will labour intensive production techniques be promoted in socialism or will capital intensive production techniques be promoted

14) Will global rate of return on capital have any significance in the Socialist stage
15) The policy of taxing the rich and wealthy for helping the toiling masses be a policy paradigm in the socialist stage
16) What will be the primary focus of government expenditure in the socialist stage will it be on infrastructure build up like roads ,bridges ,rail network ,ports ,powerplants ,local and long distance transport networks or will it be on social sector spending like education , health care etc
17) Will there be tarifs and duties for trans national trade  in the socialist stage
18) Will there be restrictions on the investment from outside the geographical boundaries of the nation state in the socialist stage
19) Will there be freedom of religion during the socialist stage
20) Will the relationship between other nations based on moral ,ethical and ideological doctrine or will it be based on the economic interests (trade ,commerce , investment)of the people of the nation

21) What will be the extent to which the freedom of expression (including the freedom of press) will be permitted in the socialist stage
Anoop Nobert

Understanding fundamental of Marxism

Dear Naren,
You may not agree that classical political economy, is predominantly occupied only with the directly intended social effects of human actions connected with production and exchange. But if you see objectively, all around in public or private discourses issues are prices, wages, tariffs, investment policies, maritime rights, strategies for coalitions and domination in regions having natural resources and their exploitation, GDP and equitable distribution etc, all related directly or indirectly with production and distribution of goods and services. 
When one wants to judge someone or something correctly, one needs to be objective and keep his prejudices aside. If you want to study Marxism scientifically you need to pay attention to the idea being expressed irrespective of who is the person expressing the idea. Since Marxism is a philosophy to begin with and is termed as scientific world outlook by all those who have tried to understand it, I shall be using text and ideas of such people but without giving their names, lest prejudice for a name may affect your objectivity. You judge yourself whether the string of ideas fits into your scientific outlook or not. If we agree on an idea we accept it and move on. If we disagree on an idea we dissect it into smaller strings and follow the same rule of accepting if agreed, if not, further dissect and discuss in parts. 
There  is  no  royal  road  to  science,  and  only  those  who do not  dread the fatiguing  climb of  its  steep paths  have  a chance  of  gaining  its  luminous summits.
Just because it is a living philosophy with innumerable concrete applications, its full power and importance can only be gradually understood, when we see it applied to history, science, or whatever field of study interests us most. For this reason a reader whose concern lies primarily in the political or economic field will come back to his main interest a better dialectical materialist, and therefore a clearer-sighted politician or economist, after studying how Marx and Engels applied Dialectics to Nature.
If your interest does not lie in political field, don't try to understand Marxism through political discussions. Trie to understand how dialectics of nature apply to your field of interest and see whether you get better concurrence between your preconceptions and results of practice. May be you are following the Dialectical analysis without realising it. Need is to apply it consciously so that you become conversant with the dialects which will help you not only in correctly understanding Marxism, but also in getting better concurrence in not only in your field of interest but in every other field also.
Marx had a very open minded approach to everything which he expressed thus, ‘Every  opinion  based  on  scientific  criticism  I  welcome.  As  to  prejudices  of  so-called  public opinion,  to  which  I  have  never  made  concessions,  now  as  aforetime  the  maxim  of  the  great Florentine  is mine:   ―Segui  il  tuo corso,  e lascia  dir  le genti.‖   [Follow  your  own course, and let  people talk  –  paraphrased  from  Dante]’   
What makes living organisms different from non-living ones? Two basic characteristics, first the former take material from surroundings to preserve own body since birth till death and second they procreate their own replica before they die. Natural scientists agree that life evolved on earth from non living matter some 3.7 billion years ago as single cell organism and after a series of evolutionary process man evolved from ape some 3.5 million years ago. 
Hand in hand with the development of the brain went the development of its most immediate instruments - the sense organs. Just as the gradual development of speech is inevitably accompanied by a corresponding refinement of the organ of hearing, so the development of the brain as a whole is accompanied by a refinement of all the senses.
This further development did not reach its conclusion when man finally became distinct from the monkey, but, on the whole, continued to make powerful progress, varying in degree and direction among different peoples and at different times, and here and there even interrupted by a local or temporary regression. This further development has been strongly urged forward, on the one hand, and has been guided along more definite directions on the other hand, owing to a new element which came into play with the appearance of fully-fledged man, viz. society.
Men can be distinguished from animals by consciousness, by religion or anything else you like. They themselves begin to distinguish themselves from animals as soon as they begin to produce their means of subsistence, a step which is conditioned by their physical organisation. By producing their means of subsistence men are indirectly producing their actual material life.
The production of life, both of one's own in labour and of fresh life in procreation, now appears as a double relationship: on the one hand as a natural, on the other as a social relationship.  By social we understand the co-operation of several individuals, no matter under what conditions, in what manner and to what end. It follows from this that a certain mode of production, or industrial stage, is always combined with a certain mode of co-operation, or social stage, and this mode of co-operation is itself a “productive force”.
The  old  economists misunderstood the nature of economic laws when  they  likened them  to the laws of  physics  and chemistry. A more thorough analysis  of  phenomena  shows  that  social  organisms differ  among themselves  as  fundamentally  as  plants or  animals.
When, therefore, it is a question of investigating the driving powers which -- consciously or unconsciously, and indeed very often unconsciously -- lie behind the motives of men who act in history and which constitute the real ultimate driving forces of history, then it is not a question so much of the motives of single individuals, however eminent, as of those motives which set in motion great masses, whole people, and again whole classes of the people in each people; and this, too, not merely for an instant, like the transient flaring up of a straw-fire which quickly dies down, but as a lasting action resulting in a great historical transformation. To ascertain the driving causes which here in the minds of acting masses and their leaders -- to so-called great men -- are reflected as conscious motives, clearly or unclearly, directly or in an ideological, even glorified, form -- is the only path which can put us on the track of the laws holding sway both in history as a whole, and at particular periods and in particular lands. Everything which sets men in motion must go through their minds; but what form it will take in the mind will depend very much upon the circumstances.
With  the varying  degree  of  development  of  productive power, social  conditions  and  the  laws governing  them  vary  too. Whilst  Marx  sets himself the  task  of  following  and explaining  from  this point  of  view the  economic system established by  the  sway  of  capital, he  is  only  formulating, in a strictly  scientific manner, the  aim  that  every  accurate investigation  into  economic life must  have. The  scientific value of  such  an inquiry  lies in  the  disclosing  of  the special  laws that  regulate  the  origin, existence, development, death  of  a given social  organism and its  replacement  by  another  and higher  one.
The  value-form,  whose  fully  developed shape  is  the  money-form,  is  very  elementary  and  simple.  Nevertheless,  the  human  mind  has  for more  than  2,000  years  sought  in  vain  to  get  to  the  bottom  of  it  all,  whilst  on  the  other  hand,  to  the successful  analysis  of  much  more  composite  and  complex  forms,  there  has  been  at  least  an approximation.  Why?  Because  the  body,  as  an  organic  whole,  is  more  easy  of  study  [discernible because its size being within the capabilities of human senses] than  are  the cells  of  that  body.  In  the  analysis  of  economic  forms,  moreover,  neither  microscopes  nor chemical  reagents are of  use. The force of  abstraction  must  replace both. But  in bourgeois  society, the commodity-form  of  the product  of  labour  –  or  value-form  of  the commodity  –  is the economic cell-form.  To  the  superficial  observer,  the  analysis  of  these  forms  seems  to  turn  upon  minutiae.  It does  in  fact  deal  with  minutiae,  but  they  are  of  the  same  order  as  those  dealt  with  in  microscopic anatomy.
As  early  as  1871,  N.  Sieber,  Professor  of  Political Economy  in  the  University  of  Kiev,  in  his  work  ‘David  Ricardo‘s  Theory  of  Value  and  of Capital’,  referred  to  Marx’  theory  of  value,  of  money  and  of  capital,  as  in  its  fundamentals  a necessary  sequel  to  the  teaching  of  Smith  and  Ricardo. This is why I asked you to analyse and understand your self, ‘what is value’ before you embark upon understanding Marxism as political economy - the science of human society. And you must understand the Dialectical relationship between ‘being and consciousness’ before you embark upon understanding Marxism as Philosophy - the science of human thoughts and ideas.

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Suresh
20 March, 2019