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Saturday, 6 January 2024
2024 के चुनाव में, नरेंद्र मोदी की गारंटी, राहुल गांधी का इंडिया गठबंधन, और मार्क्सवादियों के कार्यभार।
2024 के चुनाव में, नरेंद्र मोदी की गारंटी, राहुल गांधी का इंडिया गठबंधन, और मार्क्सवादियों के कार्यभार।
मार्क्सवादी कौन है, मार्क्सवादी वह नहीं है जो मार्क्स को उद्धृत कर सके, मार्क्सवादी वह है जो मार्क्स की तरह सोच सके। जो अपने आप को मार्क्सवादी कहलाना पसंद नहीं करते हैं पर अपने जीवन के हर आयाम की पड़ताल में वैज्ञानिक मानसिकता के साथ सोचते हैं तथा व्यवहार करते हैं, वे भी मार्क्सवादी ही हैं। अनेकों आत्मघोषित मार्क्सवादी, जिस हद तक वे मार्क्सवाद तथा समाजवाद को स्टालिन तथा माओ के संदर्भ - समर्थन अथवा विरोध - से परिभाषित करते हैं, उस हद तक इस लेखक की नजर में वे मार्क्सवादी नहीं हैं और यह लेख उनके मुख़ातिब नहीं है।
मार्क्स ने समझाया था, ‘समय के साथ प्रकृति विज्ञान अपने में मानव विज्ञान को समाविष्ट कर लेगा, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार मानव विज्ञान अपने में प्रकृति विज्ञान को समाविष्ट कर लेगा, और फिर तब एक ही विज्ञान होगा’, और वह विज्ञान ही मार्क्सवाद है।
मार्क्स का कहना था कि दार्शनिकों ने विश्व की केवल व्याख्या की है, अनेकों प्रकार से; सवाल है उसे बदलने का। यह कहने की जरूरत नहीं कि जनवादी गणतंत्र राज्य का सर्वोच्च रूप है जिसके अंतर्गत ही सर्वहारा वर्ग तथा बुर्जुआ वर्ग के बीच का अंतिम निर्णायक युद्ध लड़ा जा सकता है क्योंकि जनवादी गणतंत्र आधिकारिक रूप से संपत्ति की असमानताओं को स्वीकार नहीं करता है, और अंतत: संपन्न वर्ग सीधे सार्विक मताधिकार के आधार पर शासन करता है। सर्वहारा वर्ग, जब तक अपने आप को स्वतंत्र करने के लिए परिपक्व नहीं हो जाता है, तब तक उसका बहुमत मौजूदा सामाजिक व्यवस्था को ही एकमात्र संभव विकल्प समझता रहेगा और पूँजीपतियों के प्रतिनिधियों को ही चुनता रहेगा। जनवादी गणतंत्र की संवैधानिक संस्थाओं द्वारा किसी भी भेदभाव के बिना कानूनी प्रक्रियाओं का पालन करना कामगारों की परिपक्वता का द्योतक है, और जनवाद को सुदृढ़ करना सर्वहारा नेतृत्व का दायित्व है। जाहिर है आज जब राजनीतिक संघर्ष अधिनायकवादी और जनवादी ताकतों के बीच है, तो जरूरत है जनवादी ताकतों के साथ खड़े होने की।
हर वह चीज जो लोगों को चलाती है, उनके मस्तिष्क से गुजरनी चाहिए, पर वह मस्तिष्क के अंदर क्या रूप लेगी ये बहुत हद तक परिस्थितियों पर निर्भर करेगा, परिस्थितियाँ मस्तिष्क के अंदर और बाहर दोनों। यह बात जितना व्यक्तियों के ऊपर लागू होती है उतनी ही वह व्यक्तियों के समूहों पर भी लागू होती है। मौजूदा परिस्थिति में मार्क्सवादियों का दायित्व है कि वे राजनीतिक आर्थिक परिस्थितियों के ठीक-ठीक विश्लेषण के साथ कामगारों की मानसिकता की सही-सही समझ हासिल करें और अधिनायकवादी और जनवादी ताकतों के बीच चल रहे संघर्ष में, जनवादी ताकतों का प्रतिनिधित्व करने वालों के साथ एकजुट हों तथा कामगारों को, मतदाता के रूप में उनकी अपनी भूमिका से अवगत करायें।
महान मूल विचार, कि संसार को तैयार चीज़ों के समुच्चय के रूप में नहीं समझा जाना चाहिए, बल्कि प्रक्रियाओं के समुच्चय के रूप में समझा जाना चाहिए, जिसमें प्रतीत होनेवाली अनिश्चितता तथा अस्थाई अवनति के बावजूद एक प्रगतिशील विकास ही अंतत: प्रभावी होता है, आमचेतना में इतनी अच्छी तरह घर कर चुका है कि सर्वव्यापी नियम के रूप में उसका विरोध यदा कदा ही होता हो। पर इस मूलभूत विचार की शब्दों में स्वीकृति एक बात है, और यथार्थ के धरातल पर, हर किसी आयाम की पड़ताल में उसको व्यापक रूप में लागू करना बिल्कुल ही अलग बात है।
विज्ञान और तकनीकी के द्वंद्वात्मक संबंध से अठारहवीं सदी में हुई औद्योगिक क्रांति के बाद अब हम उस बिंदु पर पहुंच गए हैं जहां हम न केवल प्रकृति के विशेष क्षेत्रों में प्रक्रियाओं के बीच अंतर्संबंध प्रदर्शित कर सकते हैं, बल्कि इन विशेष क्षेत्रों के बीच परस्पर संबंध को भी प्रदर्शित कर सकते हैं। पूर्व में इस व्यापक दृष्टिकोण को प्रस्तुत करना तथाकथित प्राकृतिक दर्शन का कार्य था। आज जब इस अंतर्संबंध का द्वंद्वात्मक चरित्र प्रकृति वैज्ञानिकों के आध्यात्मिक रूप से प्रशिक्षित दिमागों में उनकी इच्छा के विरुद्ध भी, खुद को स्वीकार्य बना रहा है, तो पारंपरिक दर्शन का अंत हो गया है। इसे पुनर्जीवित करने का हर प्रयास न केवल अतिशयोक्तिपूर्ण होगा, बल्कि एक प्रतिगामी कदम भी होगा।
मानव समाज की संरचना अमूर्त और अत्याधिक क्लिष्ट है, जिसका मूल आधार मनुष्यों के राजनीतिक तथा आर्थिक कार्यकलाप और उनके अंतर्संबंध हैं। मानव समूहों की उत्पादन-उपभोग प्रक्रिया के दौरान विकसित होने वाली उत्पादक शक्तियों तथा उत्पादन संबंधों और उनके आधार पर विकसित होने वाले व्यक्तिगत तथा सामूहिक चेतना के अंतर्संबंधों की वस्तुपरक पड़ताल की वैज्ञानिक पद्धति ही राजनीतिक-अर्थशास्त्र है, और पृथ्वी के अलग अलग भागों में अलग अलग कालखंडों में विकसित होने वाली सभ्यताओं और राष्ट्रीयताओं की विकास प्रक्रिया की इसी पद्धति के आधार पर की जाने वाली व्यख्या ही ऐतिहासिक भौतिकवाद है। ऐतिहासिक भौतिकवाद की सही समझ के आधार पर उत्पादक शक्तियों के विकास तथा उत्पादन संबंधों में सजग हस्तक्षेप करना ही वैज्ञानिक समाजवाद है। इच्छानुसार तथ्यों और ऑंकड़ों को जुटा कर कुछ भी सिद्ध किया जा सकता है पर अज्ञात वास्तविक अंतर्संबंधों की मार्क्सवादी व्याख्या के स्थान पर आदर्श काल्पनिक अंतर्संबंधों को रखकर, अप्रमाणित तथ्यों को मन की कल्पनाओं से जुटा कर और वास्तविक रिक्तियों को केवल कल्पना में पाट कर अंतर्संबंधों की व्याख्या करना न केवल अतिशयोक्तिपूर्ण होगा, बल्कि एक प्रतिगामी कदम भी होगा। बुर्जुआ जनवादियों द्वारा, उत्पादन संबंधों को बदले बिना, सकल उत्पाद में बढ़ोतरी के साथ, स्वत: ही कामगारों के जीवन स्तर में सुधार तथा सामाजिक संबंधों में बदलाव की आकांक्षा करना और आश्वासनों तथा वादों के द्वारा कामगारों की चेतना को प्रभावित करने के प्रयास करना ही शेखचिल्ली समाजवाद है। वैज्ञानिक समाजवाद और शेखचिल्ली समाजवाद में यही अंतर है।
उच्चतम अवस्था में पहुंच चुकी पूँजीवादी अर्थव्यवस्थाओं और पारंपरिक सामंतवादी उत्पादन संबंधों के अंतर्विरोध की परिणति, प्रथम विश्वयुद्ध की उथल पुथल और उसके बाद हुई अधिनायकवादी राजनीतिक व्यवस्थाओं के बुर्जुआ जनवादी राजनीतिक व्यवस्थाओं द्वारा विस्थापन के रूप में हुई। पूंजीवादी विकास के साथ ही विकसित हुई सर्वहारा चेतना भी अब, सामन्तवाद और पूँजीवाद के साथ तीसरी शक्ति के रूप में वर्ग संघर्ष के मैदान में आ गई थी जिसकी परिणति द्वितीय विश्वयुद्ध और नव-जनवाद के उदय में हुई। अब वैश्विक चेतना सर्वव्यापी हो गई हैू और वर्ग संघर्ष भी विश्वव्यापी हो गया है। वर्ग संघर्ष के आर्थिक दायरे में तीनों उत्पादक शक्तियाँ, सामंतवादी, पूँजीवादी और सर्वहारा संघर्षरत हो गई हैं और राजनीतिक दायरे में अधिनायकवादी, जनवादी और समाजवादी शक्तियाँ। चेतना के वैश्विक चरित्र तथा भारतीय उपमहाद्वीप के अंतर्गत आर्थिक तथा सामाजिक विविधताओं के कारण न तो उत्पादक शक्तियों तथा उत्पादन संबंधों का द्वंद्वात्मक संबंध उतना सीधा सपाट रह गया है और न ही उनके आधार पर विकसित होने वाली राजनीतिक चेतना। मार्क्स ने समझाया था कि हर वर्ग अपने जीवन के भौतिक आधार पर विचारों का तिलस्म खड़ा कर लेता है जो उसके भौतिक आधार से पूरी तरह असंबद्ध नजर आता है।
‘राजनीति में लोग हमेशा ही छलावे तथा ग़लतफ़हमी के शिकार रहे हैं, अज्ञानी होने के कारण, और होते रहेंगे, जब तक कि वे सभी नैतिक, धार्मिक तथा सामाजिक वक्तव्यों, घोषणाओं तथा वायदों के पीछे एक या दूसरे वर्ग के हितों की पड़ताल करना नहीं सीख लेते हैं।’ और केवल मार्क्सवाद ही सही पड़ताल करने की क्षमता प्रदान करता है क्योंकि वह पूर्वाग्रहों को बेनकाब करने के लिए चीजों को मूल से पकड़ना सिखाता है। द्वंद्वात्मक- भौतिकवाद प्रकृति का मूलभूत शाश्वत सर्वशक्तिमान नियम है जो प्रकृति में होनेवाली सभी प्रक्रियाओं को परिभाषित और नियंत्रित करता है। मार्क्सवाद का मूल या अंतर्वस्तु, प्रकृति का मूलभूत नियम द्वंद्वात्मक- भौतिकवाद ही है और इसीलिए मार्क्सवाद सर्वशक्तिमान, शाश्वत है।
ऐतिहासिक-भौतिकवाद के नियमों के अनुरूप इंग्लैंड में पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था के विकास के साथ ही बुर्जुआ जनवादी राजनीतिक अवधारणा का विकास होता रहा था, पर संपत्ति के निजी स्वामित्व की अवधारणा, बदलते स्वरूप के साथ मूल रूप से अपरिवर्तनीय ही रही। पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था द्वारा सामंतवादी उत्पादन व्यवस्था के प्रतिस्थापन के साथ ही समाजवाद की अवधारणा भी अस्तित्व में आ गई थी। पर वह शेखचिल्ली समाजवाद था क्योंकि उसके पास यह समझ नहीं थी कि संपत्ति के निजी स्वामित्व की अवधारणा में बदलाव के बिना सामंतवादी अथवा पूँजीवादी उत्पादन उत्पादन संबंधों तथा उनसे उपजने वाली चेतना में बदलाव की उम्मीद करना ही शेखचिल्ली सपना है। अस्तित्व तथा चेतना के द्वंद्वात्मक संबंध की सही समझ से लैस, वैज्ञानिक समाजवाद ही सामंतवादी और पूँजीवादी उत्पादक शक्तियों के विकास को समजवाद की ओर मोड़ने में सक्षम है।
मार्क्सवाद के जन्म के शुरुआती दौर में, मार्क्सवाद पर हमला बाहर से था और अपनी मौजूदगी की पहली अर्ध सदी (1840 से लेकर) मार्क्सवाद ने, आधारभूत रूप से अपने विरोधी सिद्धांतों से लड़ने में गुज़ारी। नब्बे के दशक तक मोटे तौर पर जीत मुकम्मल हो चुकी थी। और मार्क्सवाद के अस्तित्व की दूसरी अर्धशताब्दी (नब्बे के दशक) की शुरुआत हुई, स्वयं मार्क्सवाद के अंदर मौजूद, मार्क्सवाद विरोधी रुझान के साथ संघर्ष से। इस रुझान का नामकरण किया गया एक समय के धुर मार्क्सवादी बर्नस्टाइन के नाम पर, जिसने मार्क्सवाद में बदलाव - मार्क्सवाद में संशोधन - के मकसद से सर्वाधिक कारगर धारणा, संशोधनवाद को आगे बढ़ाने तथा सबसे ज्यादा हाय-तौबा करने में पहल की।
1848 में भारतीय उपमहाद्वीप पर ईस्ट इंडिया कंपनी के एकछत्र शासन के बाद अगले पचास साल में उपमहाद्वीप में राजनीतिक और आर्थिक विकास अंग्रेजी साम्राज्य के व्यापारिक तथा क्षेत्रीय शासक वर्ग के सामंती हितों के अनुरूप हुआ। जो क्षेत्र कंपनी के आधीन था उसमें उत्पादक शक्तियों का विकास इंग्लैंड की पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था की अनुषंगी शक्तियों के अनुरूप हुआ। इसमें प्राकृतिक संसाधनों के दोहन तथा परिवहन संबधित उत्पादक शक्तियाँ ही विकसित हुईं। स्थानीय रियासतों के आधीन अंदरूनी क्षेत्र में उत्पादक शक्तियाँ पारंपरिक सामंतवादी ही रहीं और उनकी सामाजिक राजनीतिक चेतना में कोई परिवर्तन नहीं हुआ।
बीसवीं सदी के शुरू से ही भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन ने अपनी गति पकड़ ली थी पर दिशा का निर्धारण दूसरे दशक की समाप्ति तक हो पाया। मध्यवर्ग की राजनीतिक चेतना, वैश्विक चेतना का हिस्सा बन गई थी। 1909 के इंडियन काउंसिल एक्ट जिसे मोर्ले-मिंटो रिफॉर्म के नाम से भी जाना जाता है, में चुने हुए प्रतिनिधियों को शामिल किया गया था जिसमें धार्मिक आधार पर मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र का प्रावधान किया गया था, पर प्रतिनिधियों को कानून बनाने का अधिकार नहीं था।
बीसवीं सदी के शुरू में ही, रूस के वामपंथी आंदोलन में व्याप्त संशोधनवाद से लड़ते हुए लेनिन ने समझाया था, ‘रूसी कम्युनिस्टों का मसला स्पष्ट रूप से यूरोपीय आलम दर्शाता है। ….. जो हमारे आंदोलन की वास्तविक परिस्थिति से थोड़े भी परिचित हैं, मार्क्सवाद के व्यापक विस्तार के साथ-साथ सैद्धांतिक स्तर में आई गिरावट उनकी नजरों में आये बिना नहीं रह सकती है। काफी तादाद में लोग, सतही या पूरी तरह नदारद सैद्धांतिक प्रशिक्षण के साथ, आंदोलन के व्यावहारिक महत्व तथा सफलता के कारण उसमें शामिल हो गये हैं।’ उन्होंने समझाया था कि कम्युनिस्ट आंदोलन अपने सार रूप में एक अंतर्राष्ट्रीय आंदोलन है, और एंगेल्स की नसीहतों को दोहराते हुए उन्होंने कहा था कि इस आंदोलन के हित में नहीं है कि किसी एक देश के मजदूर अपने राष्ट्रीय आंदोलनों के आगे आगे चलें। उनका दायित्व है कि वे जनवादी गणतंत्र, जिसके अंतर्गत ही सर्वहारा वर्ग तथा बुर्जुआ वर्ग के बीच का अंतिम निर्णायक युद्ध लड़ा जा सकता है, को मज़बूत करने और लडाई के मैदान में सम्माननीय स्थिति हासिल करने की दिशा में काम करें।
प्रथम विश्वयुद्ध तथा सोवियत क्रांति की सफलता ने भारत में राजनीतिक आजादी की लड़ाई और वर्गीय संघर्ष दोनों को ही तीव्रता प्रदान की। अंग्रेज़ों ने गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1919 जिसे मोंटेगू-चेम्सफोर्ड सुधारों के नाम से भी जाना जाता है, के जरिए जन आक्रोश को शांत करने का प्रयास किया। नये सुधारों में चुने हुए प्रतिनिधियों को कानून बनाने का अधिकार हासिल हो जाने के बाद वर्गीय महत्वाकांक्षाएँ भी तीव्र हो गईं।
सोवियत क्रांति की सफलता के साथ समाजवादी चेतना के विस्तार के लिए जरूरी उत्पादक शक्तियों को भौतिक आधार हासिल हो जाने के बाद, विभिन्न राष्ट्र राज्यों में सत्ता के लिए संघर्ष में सामंतवादी चेतना और पूँजीवादी चेतना के साथ सर्वहारा चेतना भी मैदान में थी। मार्क्स ने अन्नानिकोव को लिखे अपने पत्र में निम्न मध्य वर्गीय चरित्र के ढुलमुलपन को रेखांकित करते हुए दर्शाया था कि निम्नमध्यवर्गीय एक ओर तो विपन्नों की पैरोकारी करता है तो दूसरी ओर संपन्नों की ताबेदारी, पर अपनी सामाजिक परस्थिति के कारण सभी सामाजिक क्रांतियों का अभिन्न अंग भी होता है। और बुर्जुआवर्ग के चरित्र पर टिप्पणी करते हुए माओ ने ‘नये जनवाद’ में समझाया है कि जब दुर्जेय दुश्मन से मुक़ाबला होता है, वे उसके खिलाफ मजदूरों तथा किसानों के साथ एकजुट होते हैं, लेकिन जब मजदूर तथा किसान जागृत हो जाते हैं तो वे पाला बदल कर मजदूर तथा किसानों के खिलाफ दुश्मन से मिल जाते हैं। यह एक आम नियम है जो बुर्जुजी पर सारी दुनिया में लागू होता है।’ वे आगे समझाते हैं कि ‘चीन में जनवादी गणतंत्र जिसे हम स्थापित करना चाहते हैं, वह सर्वहारा के नेतृत्व में सभी साम्राज्यवाद विरोधी तथा सामंतवाद विरोधी लोगों का सामूहिक अधिनायकवाद होगा अर्थात ‘नया जनवाद’।
कामगारों की एकता को तोड़ने में धार्मिक और जातिवादी रूढ़ियॉं सबसे ज्यादा कारगर होती हैं इस कारण सामंतवादी और पूँजीवादी ताकतों ने हिंदू तथा मुस्लिम कट्टर धार्मिक संगठनों को खड़ा करने में सक्रिय भूमिका निभाई। दोनों वर्गों के धार्मिक उदारवादियों की मदद से कांग्रेस बुर्जुआ जनवाद के लिए आजादी की लड़ाई की बागडोर अपने हाथों में रखने में सफल रही। सोवियत क्रांति की सफलता से अभिभूत भारतीय निम्नमध्यवर्गीय युवा, अपनी संशोधनवादी समझ के कारण एंगेल्स तथा लेनिन की नसीहतों को नजरंदाज करते हुए और कामगारों को राजनीतिक रूप से वैज्ञानिक समाजवाद के बारे में शिक्षित किये बिना कम्युनिस्ट पार्टी का गठन कर बैठे और आजादी के आंदोलन में निर्णायक भूमिका गँवा बैठे। अपने जन्म से ही संशोधनवाद के दलदल में फँस गया भारतीय वामपंथी आंदोलन आज तक उस दलदल से नहीं निकल सका है।
कामगारों की चेतना में वैज्ञानिक समाजवाद, आर्थिक संघर्षों के दौरान स्वत: नहीं आता है। उसे मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों द्वारा संघर्ष के बाहर से लाया जाता है, जिस प्रकार शेखचिल्ली समाजवाद लाया गया था। भारतीय निम्नमध्यवर्गीय बुद्धिजीजीवियों की शिक्षा दीक्षा अंग्रेज़ी बुर्जुआ परंपरा पर आधारित थी इस कारण भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में जिसे समाजवाद के नाम पर शामिल किया गया था वह वैज्ञानिक समाजवाद न हो कर शेखचिल्ली समाजवाद था और जिस सिद्धांत को मार्क्सवाद के नाम पर अपनाया गया था वह मार्क्सवाद न हो कर संशोधनवाद था। राजनीति के क्षेत्र में संशोधनवाद ने वास्तव में मार्क्सवाद के आधार को ही बदलने की कोशिश की है।
‘जो कोई भी संसदवाद तथा बुर्जुआ प्रजातंत्र के अनिवार्य आंतरिक अंतर्विरोधों, जिनके चलते मतभेदों के समाधान पहले के मुकाबले कहीं अधिक व्यापक हिंसा के कारण और अधिक उग्र होते हैं, को नहीं समझता है, वह व्यापक मजदूरवर्ग को ऐसे फ़ैसलों में विजयी अभियान के लिए तैयार करने के मकसद से संसदवाद के आधार पर कभी भी उसूल सम्मत प्रचार तथा आंदोलन नहीं चला सकता है। क्रांतिकारी सिद्धांत के बिना कोई क्रांतिकारी आंदोलन नहीं हो सकता है। इस समय तो हम केवल इतना कहना चाहते हैं कि हरावल लड़ाकू की भूमिका केवल ऐसा संगठन निभा सकता है जो अत्याधिक विकसित सिद्धांत से संचालित हो।’
कार्यभार का अर्थ है वांछित परिणाम हासिल करने के लिए पूर्वनियोजित सजग हस्तक्षेप, इस कारण कार्यभार निर्धारित करते समय उद्देश्य की स्पष्ट समझ और सामाजिक बदलाव की प्रक्रियाओं के नियमों, जो प्रक्रियाओं को नियंत्रित करते हैं, की पुख्ता समझ होना अनिवार्य पूर्व शर्त है। आगामी लोकसभा के चुनावों को तथा भारत की मौजूदा राजनीतिक आर्थिक व्यवस्था को देखते हुए मार्क्सवादियों के कार्यभार दो भागों में बाँटे जा सकते हैं।
- फौरी कार्य भार है, भाजपा को सत्ता से बेदख़ल करने के लिए आगामी लोकसभा के चुनाव में इंडिया गठबंधन की ओर से सभी सीटों पर साझा उम्मीदवार सुनिश्चित करने के कांग्रेस के प्रयासों को, और सीटों के बंटवारे में राहुल गांधी को समर्थन दे कर कांग्रेस के आंतरिक अंतर्द्वंद्व में तथा भारतीय राजनीति के अंतर्द्वंद्व में बुर्जुआ जनवादी ताकतों को मज़बूती प्रदान करना।
- दीर्घकालीन कार्यभार है, वामपंथी आंदोलन में व्याप्त संशोधनवाद की मूल अवधारणाओं को बेनकाब कर नई पीढ़ी को मार्क्सवाद की मूल अवधारणाओं, द्वंद्वात्मक-भौतिकवाद और ऐतिहासिक भौतिकवाद से परिचित कराना ताकि संशोधनवाद के दलदल में फंसे मजदूर संगठनों को उससे बाहर निकाला जा सके।
फौरी कार्यभार -
अत्याधिक पिछड़ी सामंतवादी से ले कर अत्याधुनिक पूंजीवादी, विविध चेतना बहुल भारत में, आजादी के तथा पुनर्गठन के बाद, मुख्य अंतर्विरोध यथास्थितिवादी पारंपरिक सामंतवादी व्यवस्था तथा प्रगतिशील आधुनिक पूंजीवादी व्यवस्था के बीच था पर देश के अनेकों भागों में किसानों और मजदूरों के बीच वामपंथी आंदोलनों की मौजूदगी के कारण शक्ति संतुलन औद्योगिक पूँजी तथा बुर्जुआ जनवाद के हक़ में था। इसीलिए कांग्रेस के अंदर तथा संविधान सभा के अंदर सामंतवादी सोच के बहुमत के बावजूद नेहरू संविधान को संघीय स्वरूप देने में और स्थानीय औद्योगिक पूँजी के विकास के लिए ज़मींदारी उन्मूलन करने तथा नियोजित औद्योगिक नीति लागू करने में कामयाब रहे। अगले पचास साल में कांग्रेस ने मध्यमार्गीय नीति अपनाते हुए देश के आर्थिक विकास और जनवाद को उस स्तर पर पहुँचा दिया जहाँ अंतर्राष्ट्रीय परिवेश के अनुरूप उदारीकरण की नीतियाँ लागू कर विदेशी पूँजी के लिए रास्ता खोला जा सकता था। पर संशोधनवादी समझ के कारण वामपंथी संगठन यह समझने में नाकाम थे कि भारतीय अर्थव्यवस्था का मुख्य अंतर्विरोध सामन्तवाद और पूँजीवाद के बीच है, न कि पूँजीवाद और समाजवाद के बीच। अपनी संशोधनवादी समझ के कारण वे उद्योगों में विदेशी निवेश का विरोध करते रहे और अप्रत्यक्ष रूप से वाणिज्यिक पूँजी निवेश और सामन्तवाद की मदद करते रहे। सामन्तवाद में विनिमय का आधार वाणिज्यिक पूँजी ही होती है और क्रोनी कैपिटल वाणिज्यिक पूँजी का ही विकसित रूप है।
यूपीए-1 के दौर में वामपंथी संगठनों के समर्थन के कारण सोनिया गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पूँजीवादी उत्पादक शक्तियों को तथा बुर्जुआ जनवाद को मज़बूत करने वाली नीतियाँ बनाने में सक्षम थी। पर यूपीए-2 में वामपंथियों का समर्थन न होने के कारण कांग्रेस को सामंती अधिनायकवादी क्षेत्रीय दलों पर पूरी तरह निर्भर रहना पड़ा और कांग्रेस के अंदर और बाहर सामंती अधिनायकवादी शक्तियों का पलड़ा भारी हो गया। फलस्वरूप 2014 के चुनाव में, सामंतवादी अधिनायकवादी शक्तियों का प्रतिनिधित्व करने वाली भाजपा के नेतृत्व वाला एनडीए गठबंधन केंद्र में सत्तानशीन हो गया और भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था के विकास की दिशा भी उलटी हो गई।
भारतीय राजनीतिक अर्थव्यवस्था को पुन: प्रगति की दिशा में मोड़ने के लिए आवश्यक है कि राजसत्ता को फिर से बुर्जुआ जनवादी ताकतों के नियंत्रण में लाया जाय। औद्योगीकरण के द्वारा उत्पादक शक्तियों के विकास के, तथा कमजोर और वंचित लोगों को राजनीतिक रूप से जागरूक कर जनवाद का आधार मज़बूत करने के बारे में राहुल गांधी की सोच स्पष्ट है। कांग्रेस के अंदर तथा बाहर बुर्जुआ जनवादी ताकतों की एकजुटता के लिए जरूरी है कि वामपंथी दल अपने को अग्रणी भूमिका में न रख कर पूरी मुस्तैदी के साथ राहुल गांधी के पीछे खड़े हों। इसके लिए सही वातावरण तैयार करने में मदद करना ही मार्क्सवादियों का फौरी कार्यभार है।
दीर्घकालीन कार्यभार -
उत्पादक शक्तियों के निरंतर विकास के समानांतर, उत्पादन संबंधों में राज्य के सजग हस्तक्षेप के जरिए निरंतर बदलाव करते जाना ही लोगों की सुरक्षा और ख़ुशहाली की गारंटी है और यही समाजवाद है। राजनीतिक अर्थव्यवस्था को समाजवाद की राह पर स्थापित करने और निरंतर समाजवाद की राह पर बनाये रखने के लिए आवश्यक है कि राजसत्ता पर नियंत्रण ऐसी पार्टी का हो जिसका गठन जनवादी केंद्रीयता के नियम पर आधारित हो और जो वैज्ञानिक समाजवाद के लिए प्रतिबद्ध हो। ऐसी पार्टी के गठन के लिए जरूरी है कि उसके सदस्यों को वैज्ञानिक दृष्टिकोण आधारित सिद्धांत मार्क्सवाद की पुख्ता समझ हो। इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए मार्क्सवादियों के दीर्घकालिक कार्यभार को दो भागों में बाँटा जा सकता है।
एक आयाम तो है सामाजिक सरोकारों के प्रति सजग ऐसे बुद्धिजीवियों, जो किसी भी क्रांतिकारी परिवर्तन के लिए क्रांतिकारी आंदोलन और क्रांतिकारी सिद्धांत के महत्व को समझते हों, को खोज निकालना और उन्हें एकजुट करना, और उनके साथ मार्क्सवाद और संशोधनवाद के मूलभूत अंतर को समझना और समझाना। पुरानी पीढ़ी के जिन मार्क्सवादियों के कंधों पर नई पीढ़ी को मार्क्सवाद की सही समझ से लैस करने का दायित्व है, पहले उन्हें स्वयं को शिक्षित करना होगा ताकि वे पारंपरिक संशोधनवाद के दलदल से बाहर निकल सकें। ‘स्वयं शिक्षा देनेवाले को शिक्षित किया जाना अनिवार्य है।’ इसके लिए जरूरी है कि मार्क्सवाद के विभिन्न आयामों के ऊपर ऐसे मंचों पर विषय केंद्रित विचार विमर्श किया जाय जो किसी राजनीतिक आर्थिक आंदोलन की अग्रणी भूमिका में नहीं हैं। विचार विमर्श के कार्यक्रमों को एक सतत क्रांतिकारी आंदोलन की तरह चलाना जरूरी है।
‘इसलिए जब सवाल इतिहास की उन चालक शक्तियों की पड़ताल का है जो, सजग तौर पर या अनजाने - और वास्तव में अक्सर अनजाने ही - इतिहास में काम करने वाले लोगों के मंसूबों के पीछे निहित होती हैं और जो इतिहास के वास्तविक अंतिम चालक बलों का गठन करती हैं, तब फिर सवाल किसी एक व्यक्ति, कितना भी प्रख्यात क्यों न हो, के मनसूबों का इतना अधिक नहीं है जितना कि उन मनसूबों का है जो आमजन को, व्यापक जनसमुदाय के सभी वर्गों को, हर जनसमुदाय को कर्म के लिए प्रेरित करते हैं, वह भी, केवल क्षणभर के लिए नहीं, भूसे के ढेर में लगी आग की तरह जो जल्दी ही ठंडी पड़ जाती है, बल्कि एक दीर्घकालीन सतत कर्म के लिए जिसकी परिणति ऐतिहासिक परिवर्तन में होती है। उन चालक कारणों, जो कार्यरत जनता तथा उसके नेताओं - तथाकथित महान पुरुषों- के सजग मनसूबों के रूप में स्पष्ट या अस्पष्ट तौर पर, सीधे-सीधे या आदर्श, महिमामंडित रूप में नजर आते हैं, को सुनिश्चित करना ही एकमात्र रास्ता है जिसके जरिए हम उन नियमों की पहचान कर सकते हैं जो संपूर्ण इतिहास में भी और किसी विशिष्ट कालखंड में तथा किसी विशिष्ट दिककाल में भी चीज़ों को निर्धारित करते हैं। हर वह चीज जो लोगों को चलाती है, उनके मस्तिष्क से गुजरनी चाहिए, पर वह मस्तिष्क के अंदर क्या रूप लेगी ये बहुत हद तक परिस्थितियों पर निर्भर करेगा।’
दीर्घकालीन कार्यभार का अगर एक आयाम उन लोगों को एकजुट करना है जो सर्वहारा के हरावल दस्ते का काम करेंगे तो दूसरा आयाम है सर्वहारा की चेतना में वैज्ञानिक समाजवाद की समझ का विस्तार करना। संशोधनवादी, पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली की सामूहिक श्रमशक्ति को व्यक्तिगत श्रमशक्ति से गुणात्मक रूप से भिन्न नहीं मानता है और मानता है कि पूंजी और श्रम के औजारों पर नियंत्रण तथा बुर्जुआ सरकार के समर्थन से पूंजीपति मजदूर को उसके द्वारा व्यक्तिगत रूप से पैदा किये गये मूल्य से कम मजदूरी चुका कर अतिरिक्त मूल्य हड़प कर उसका शोषण करता है। वह मानता है कि राजसत्ता के हस्तक्षेप के द्वारा पैदा किये गये अतिरिक्त मूल्य का मजदूरों के बीच बंटवारा ही शोषण से मुक्ति दिलाने का रास्ता है और मजदूरों की आर्थिक लड़ाई में मजदूरों के साथ खड़े होकर वह मजदूरों का विश्वास हासिल कर लेगा और सत्ता पर क़ाबिज़ हो जायेगा। इसे ही वह समाजवाद मानता है। पर यह सोच कामगारों की चेतना में निजी स्वामित्व की अवधारणा को ही बल प्रदान करती है जो समाजवाद की मूल अवधारणा के बिल्कुल विपरीत है। यही कारण है कि संशोधनवादी कामगारों को अपने पीछे लामबंद कर पाने में असफल रहते हैं।
‘यह सिद्ध हो गया था कि संशोधनवादी आधुनिक लघु-उत्पादन के बारे में सुचारू रूप से सुनहरी तस्वीर दर्शाने में लगे हुए थे। छोटे स्तर के उत्पादन के मुकाबले बड़े स्तर के उत्पादन में तकनीकी तथा वाणिज्यिक उत्कृष्टता न केवल उद्योग में बल्कि कृषि में भी निर्विवाद तथ्यों के आधार पर सिद्ध हो चुकी है।’ ‘लघु उत्पादन अपने आप को, निरंतर गिरते पोषण स्तर के द्वारा, दीर्घ कालिक भुखमरी के द्वारा, लंबे होते कार्य दिवस के द्वारा तथा पशुधन की गुणवत्ता तथा देखभाल में ह्रास के द्वारा, बरक़रार रख पाता है’। असंगठित क्षेत्र के कामगार की तुलना में अपनी बेहतर मजदूरी तथा बेहतर जीवन स्तर को देखते हुए, संगठित क्षेत्र के कामगार संशोधनवादियों की इस दलील को स्वीकार नहीं कर पाते हैं कि उन्हें कम मजदूरी देकर पूँजीपति उनका शोषण कर रहे हैं। संशोधनवादियों के, शेखचिल्ली समाजवाद के बारे में घोषणाओं तथा आश्वासनों पर विश्वास कर, मजदूरवर्ग संपन्न वर्ग के प्रतिनिधियों को ही अपने प्रतिनिधि मान कर उन्हें चुनता रहता है।
मजदूरवर्ग के बीच काल्पनिक समाजवाद तथा वैज्ञानिक समाजवाद के अंतर को स्पष्ट करना तथा समझाना कि उत्पादक शक्तियों को विकसित किये बिना न तो जनवाद को सुदृढ़ किया जा सकता है और न समाजवाद लाया जा सकता है, मार्क्सवादियों के दीर्घकालीन कार्यभार का दूसरा आयाम है।
सुरेश श्रीवास्तव
6 जनवरी, 2024
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